देश की आजादी के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास करने की मुहिम में आजाद हिंद फौज (आईएनए) के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस के योगदान को किसी भी कीमत पर कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन उनके फौजियों को मलाल है कि आजाद भारत की पहली सरकार भी उनके साथ न्याय न कर सकी और देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा की नजर में तो ये फौजी अनुशासनहीन भी थे।आईएनए की अग्रिम पंक्ति के नायक रहे और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना से विद्रोह करने के आरोप में कोर्ट मार्शल झेलने के बाद फांसी की सजा सुनाए गए कैप्टन अब्बास अली ने अपनी किताब में यह खुलासा किया है।आजादी के बाद देश में समाजवादी आंदोलन से जुड़ने वाले कैप्टन अब्बास ने अपनी आत्मकथा ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर’ में 1945 में पंडित नेहरू के नेतृत्व में बनी पहली अंतरिम सरकार द्वारा आईएनए के फौजियों के साथ किए गए बर्ताव का बेबाकी से वर्णन किया है।आजादी के बाद जनता पार्टी के सदस्य के रूप में उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य रहे कैप्टन अली लिखते हैं कि विश्वयुद्ध में आईएनए के सिपाहियों को ब्रिटिश सरकार से बगावत कर जापान का साथ देने के आरोप में कोर्ट मार्शल के दौरान फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद, 1946 में बनी अंतरिम सरकार ने अधिकांश सैनिकों की सजा को मुल्तवी कर दिया। लेकिन कुछ एक सिपाहियों को ब्रिटिश अधिकारियों ने फिर भी सजा-ए-मौत दे दी और भारत सरकार कुछ न कर सकी। इतना ही नहीं कोर्ट मार्शल की कार्रवाई के दौरान भी उन लोगों के साथ जेलों में बुरा बर्ताव किया गया।कैप्टन अली के मुताबिक, “देश की आजादी के लिए आईएनए में भर्ती हुए सैनिकों को उम्मीद थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन सभी को भारतीय सेना में शामिल कर देश की सेवा का मौका दिया जाएगा। लेकिन हाय री किस्मत, हमारी अपनी सरकार ने ही हमारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया और वह भी नाकाबिल बताकर”। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि आईएनए में एक लाख से ज्यादा सैनिक थे और इनमें से 60 हजार से अधिक पहले ब्रिटिश फौज का हिस्सा थे।आमतौर पर माना जाता है कि आईएनए के केवल तीन युद्धबंदियों- जनरल शाहनवाज खां, कैप्टन सहगल और कैप्टन ढिल्लों को ही कोर्ट मार्शल का दंश झेलना पड़ा, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे हजारों सिपाहियों के खिलाफ देश की विभिन्न जेलों में यह कारवाई हुई और वह भी उनमें से एक थे।कैप्टन अली ने बयां किया, “बड़े अफसोस के साथ मुझे लिखना पड़ रहा है कि हम बागियों को यह कहकर आजाद भारत की सेना में शुमार नहीं किया गया कि ये फौजी अनुशासित नहीं हैं। मुझे याद पड़ता है कि देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने बयान दिया था कि चूंकि आईएनए के सिपाही अनुशासित नहीं हैं, इसलिए उन्हें दोबारा सेना में शामिल नहीं किया जाएगा और हमारी सरकार ने उनकी यह बात मान ली”। कैप्टन अली के मुताबिक इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह रही कि आईएनए के जनरल शाहनवाज खां ने, जो आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हुए और केन्द्र में मंत्री भी बने, अपने ही साथियों के साथ किए गए इस अपमानजनक रवैये के बारे में कुछ नहीं किया। इसके लिए सिर्फ डॉ. राममनोहर लोहिया ही बार-बार आवाज उठाते रहे।उन्होंने लिखा कि आजादी के बाद आईएनए के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल करने या न करने का सवाल उठाना ही निरर्थक था।खैर, अगर यह सवाल उठाया भी गया तो फिर उन्हें बगावती बताकर सेना में शामिल करने से अयोग्य ठहराए जाते वक्त यह सवाल क्यों नहीं उठाया गया कि देश की आजादी के इन दीवानों ने आखिरकार बगावत किसके खिलाफ की थी। अपने देश के खिलाफ या फिर देश के दुश्मनों के खिलाफ।कैप्टन अली लिखते हैं कि एक सैनिक के लिए उसके फौजी होने से अयोग्य बताने से बड़ी पीड़ा और कुछ नहीं हो सकती और इस पीड़ा का अंत यहीं नहीं हुआ, बल्कि कांग्रेसी सरकार ने इन सिपाहियों और अफसरों को 1972 तक न तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना और न ही किसी तरह की पेंशन या कोई सुख सुविधा दी। विपक्षी दलों के संसद से सड़कों तक पर्याप्त शोरगुल और जद्दोजेहद के बाद 1972 में इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी माना और पेंशन दी। लेकिन इस समय तक तमाम सिपाही मर चुके थे और जो बचे थे उन्हें सरकार ने दस्तावेजी सबूतों के अभाव में आईएनए का सिपाही ही नहीं माना। कुल मिलाकर स्थिति ज्यों की त्यों रही । - वार्ता
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