कब्र
मरने पर मेरे मुझे
सुपुर्दे ख़ाक कर देना
मेरी कब्र न बनाना
मुझे चैन से सोने देना.
नहीं चाहता खलल
नींद मे मेरी आये
ता उम्र उलझा रहा फिक्र मे
मर कर तो सकूँ आये.
मरने पर किसी के
जब फातिया पढ़ते हैं
चैन से सोने कि
सब दुआ करते हैं.
फिर क्यों कब्र किसी कि
वो बनाते हैं
कब्र पर इंसान नहीं
बस उल्लू नज़र आते हैं.
टूटे हुए पत्तों का ढेर
कब्र पर छा जाता है
जानने को हाल कोई
कब्र तक नहीं आता है.
मैं जिन्दा तो दबा रहा
फिक्रों के बोझ से
मरने पर न दबाना
मुझे पत्तों के बोझ से.
पत्तें भी तन्हां हैं
शाख से अपनी
सुपुर्दे ख़ाक कर देने
उनको भी कहीं.
चैन से सो जाएँ वे भी
तुम दुआ करना
उनके भी अमन कि खातिर
एक फातिया पढ़ना.
डॉ कीर्तिवर्धन
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