तबरेज और मकसूद भी तो आजमगढ़ के हैं

मैं इस उम्मीद के साथ यह विचार भेज रहा हूं, जो अनायास नहीं उपजे हैं। एक दर्द था, एक पीड़ा थी, ऐसा लगा कहीं हम इंसानियत के साथ दगा तो नहीं कर रहें। आतंक का सिर्फ एक ही चेहरा होता है दहशत। वहीं इंसानियत का भी एक चेहरा है भाईचारा। मैनें इस दोनों को नजदीक से देखा है। बस मन उगलता गया और मैं लिखता गया। उम्मीद है आपके मंच पर मेरे इन विचारों को कहीं न कहीं जगह मिलेगी .....
आजमगढ़ के पिपरही गांव के पास सफारी और ट्रक में भिडंत़ शायद ही कभी भूल सकूंगा। 10 जुलाई 2008 की रात हुए इस हादसे में अमर उजाला के दो साथी मौके पर ही काल में समा गए, जबकि क्षतिग्रस्त सफारी के अंदर ही चार साथी जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे। अंधेरी रात और तेज बारिश में सड़क पर गाड़ियां फर्राटे भर रही थे। इन चारों की चीख पुकार गाड़ियों के फर्राटे से कहीं अधिक थी, लेकिन किसी की मानवता नहीं जागी। इसी बीच गोरखपुर से आजमगढ़ जा रही एक मारुति वैन में सवार दो नव युवकों को इन चारों की आवाज सुनाई पड़ी। जिन्होंने किसी बात की परवाह किये हुए चारों को गाड़ी से बाहर निकाला और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचाया। इसी बीच हमारे अन्य साथी भी घटनास्थल पर पहुंच चुके थे।
चारों घायल साथी को गोरखपुर लाया गया। डाक्टरों ने इलाज शुरू किया, सबकी दुआएं और ऊपर वाले की मेहरबानी थी कि जिसके बचने की उम्मीद किसी को नहीं थी, वे आज हमारे साथ खबरों के माया जाल में उलझ चुके हैं। उन दोनों युवकों की संवेदना को सभी ने सलाम किया। अगर वे नहीं रूकते तो हमको और नुकसान हो सकता था। घटना के कई दिनों बाद तक इन दोनों ने चारों साथियों का कुशलक्षेम पूछा। कभी ऐसा लगा ही नहीं कि ये अजनबी थे। जब इनका फोन आता लगता कोई अपना हो। अमर उजाला ही नहीं, पूरे गोरखपुर ने इन दोनों युवकों को आंखों पर बैठाया। गोरखपुर प्रेस क्लब ने इन दोनों नवयुवकों के जज्बात को सलाम करते हुए इनको सम्मानित करने का फैसला लिया। इस घटना को करीब दो महीने बीत चुके। हर कोई अपने काम में व्यस्त। तभी एकाएक खबर आती है देश में हो रही आंतकी गतिविधियों में आजमगढ़ के युवकों की ज्यादा सहभागिता है। कनाट प्लेस में बम विस्फोट के पीछे दिल्ली पुलिस मुतभेड़ में मारे गए 20 साल के मोहम्मद आतिफ उर्फ बशीर और 19 वर्षीय मोहम्मद साजिद का हाथ होना बता रही है। मोहम्मद सैफ, जियाऊ जैसे ना जाने कितने युवा आजमगढ़ के बताये जा रहे हैं। ये वही आजमगढ़ है जिसकी पहचान कभी राहुल सांकृत्यायन हुआ करते थे, यह वही शहर है जहां कैफी आजमी ने कौमी एकता की नींव रखीं थी। वहां अब भाई ही भाई को शक की निगाह से देख रहा है। इसी शहर में अल्लामा शिब्ली नोमानी ने पेश की इंसानियत की मिशाल। मौजूदा हालत यह है हर जगह आजमगढ़ की ही चरचा हो रही है। हिंदु हो तो ठीक लेकिन मुसलमान हो तो गड़बड़। लेकिन तबरेज और मकसूद को आज भी गोरखपुर के अधिकांश लोग भगवान का फरिश्ता मानते हैं। यह तबरेज और मकसूद वहीं है जिन्होंने चार पत्रकारों की जान बचाई। समय रहते इन दोनों ने अगर इन्हें सफारी से बाहर न निकाला होता शायद मैं यह लेख भी न लिखा पाता। बात केवल तबरेज और मकसूद की ही नहीं। परवेश, तौहीर, काशिफ, नसीम आदि जैसे कई नाम है जिन्होंने अलग अलग सड़क दुर्घटनाओं में कई हिंदु परिवारों की रक्षा की है। आखिर ये भी तो उसी आजमगढ़ के हैं, जहां इन दिनों तलाशे जा रहे हैं इंसानियत के दुश्मन। पुलिस की काली सूची में आए आजमगढ़ के संजरपुर, फरिहा, सरायमीर गांव के आम लोगों का कहना है कि कुछ लोगों ने गड़बड़ियां कीं, लेकिन यहां के बाशिंदे बदनाम हो गए, यह कहां तक सही है।
अमित गुप्ता, अमर उजाला गोरखपुर।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails