पंजाब की भूमि अपनी पांच नदियों की विशेषता से प्रसिध्द है। बहुत कम लोग जानते हैं कि पंजाब में केवल पांच नदियां नहीं हैं। इसकी भूमि पर रक्त नाड़ियों की भांति अनेक छोटी-बड़ी नदियां प्रवाहित होती हैं। बल्कि हर नगर की अपनी एक नदी है। मगर हमारे लोग नदियों को कम ही पहचानते हैं।जब मैं प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर रहा था तो मेरे सामने बार-बार देविका नदी की धारा चलने लगती थी। पंजाब के मानचित्र में और फिर भूमि पर देविका को देखता तो मुझे अनुभव होता कि वह नदी भी कभी एक शक्तिशाली जलधारा रही होगी। इसे ही अलबरूनी ने अपने ग्रंथ 'अलहिंद' में कहा है कि वह सौवीरा अर्थात मुल्तान देश में प्रवाहित थी।समय की गति के साथ देविका का स्रोत काफी हद तक कम हो गया और लोगों ने भी उसका नाम देविका से देग और फिर लोक मुहावरे में 'डेक' बना लिया। देग के ईद-गिर्द बसने वाले लोगों ने मुझे बताया था कि-एक बरसाती नदी है, मगर जब उसमें पर्वतमाला का सांवला पानी आता है तो फसल खूब पैदा होती है। इसके पानी में ऊपर पहाड़ से गारा बहुत आता है। इसका मतलब है कि देग का स्रोत ऊपर हिमालय पर्वत नहीं, बल्कि शिवालिक पर्वतमाला में ही है। मगर हमें लगता है कि कहीं नगर के बाहर निकट ही इसका स्रोत है। क्योंकि अचानक ही इसके पाट में पानी भर जाता है। अपने स्रोत से चलकर रावी में संगम तक उसकी रफ्तार इसी प्रकार की अकस्मात किस्म की है। विश्वासहीन सी... देविका अथवा देग का स्रोत मैनाक पर्वतमाला (शिवालिक) में जम्मू क्षेत्र के जसरोता के आंचल में से आरंभ होता है, मगर उस पर्वतमाला पर क्योंकि हिमपात नहीं होता, इसलिए देविका का स्वभाव अब सदानीरा नहीं रहा। वर्षा ऋतु के अलावा उसमें बहुत कम पानी रहता है। फिर भी उसकी धारा कुछ समय में ही अपने क्षेत्र की भूमि को जितना उपजाऊ बना देती है, उसी वरदान के कारण लोग उसे वर्ष भर याद रखते हैं। मोह-मोहब्बत से।पाणिनी ने भी 'अष्टाध्यायी' में लिखा है कि देविका अपने तटों पर रौसली (रजसवला अथवा बरसाती) मिट्टी की एक तह छोड़ जाती है जो फसल के लिए लाभकारी होती है। किसान को सुख देती है।मेरे एक मित्र जगदीश सिंह नामधारी ने बताया था कि जितना बढ़िया बासमती धान इसके पानी के निकट पैदा होता है, और कहीं शायद ही होता हो।मंडी मुरीदके और कामोके से जो सुगंधित चावल विदेशों में जाते हैं, उनका मूल्य बहुत अधिक है।'स्यालकोट और शेखूपुरा के क्षेत्र को तो देग ने स्वर्ग बना दिया है।' नामधारी जगदीश सिंह कहता था हंसकर।पिछले वर्ष जब मैं 'उन्नीसवीं सदी का पंजाब' नामक पुस्तक पढ़ रहा था तो उसमें स्यालकोट शहर के वर्णन में डेक नदी का स्वरूप पूरी तरह साकार हो गया,'स्यालकोट नगर में निचली तरफ एक नदी है जिसे डेक (देग) कहते हैं। यह नदी वर्षा के दिनों में जीवित हो जाती है। कहा जाता है कि अतीत में यह सदानीरा थी। वर्षा में इसे पार करना कठिन था। हजरत शाह दौला दरवेश ने आने-जाने वाले लोगों के लिए इसके पाट पर एक पुल बनाया, जिसे शाह दौला पुल कहते थे।' देग नदी खैरी रहाल नाम के गांव के पास से फूट कर जम्मू के गांव-मोरचापुर डबलड़, मांजरा और आरीना आदि में प्रवाहित होती है। सईयांवान गांव के निकट और करटोपा के बीच में पहुंचकर यह कहीं सूखी और कहीं प्रवाहित दिखाई देती है। वहां से यह स्यालकोट के नीचे की ओर जा निकलती है। आगे चलकर सोहदरा तथा भोपाल वाला तक चली जाती है। फिर कावांवाला, धड़ और नुकल गांव के बराबर बिखर जाती है। वहां इसका नाम 'कुलहरी' है। नदी की दूसरी ओर स्यालकोट के पूर्व में रंगपुर, रायपुरा तथा जठापुरा बस्तियां हैं। इन्हें बडेहरा खतरियों ने आबाद किया था। रंगपुर में कागज तैयार करने वाले कारीगर रहते हैं। माबड़ों की औरतें रंगदार रेशमी धागे से सफेद सुर्ख वस्त्रों पर कसीदाकारी का काम करती हैं।पंजाब में फिरंगी सरकार से पूर्व रावी और चिनाब के बीच वाला अधिक क्षेत्र बिल्कुल जंगल था और जंगली लोग देग के निकट आबाद थे। इन लोगों के बारे में ही प्रो। पूर्ण सिंह ने अपनी पुस्तक 'खुले आसमानी रंग' में लिखा था-'यहां मुझे मालुम हुआ कि हवा, पानी, मिट्टी, प्रकाश, चांद, सूर्य, आदमी, जानवर, पंछी, प्यार के बारीक रेशमी धागे से एक जीवन में बंधे हुए हैं। मुर्गे की बांग और प्रभाव के मेघों के रंगों का सौंदर्य दोनों की कोई मिली-जुली उकसाहट है। फूलों का खिलना और सूर्य प्रकाश का नित नए विवाह की भांति प्रसन्नता और चाव में अपना एक जादुई अचम्भा है। किरण फूल के दिल में कुछ कह जाती है और दिन भर फूल अपनी छोटी सी झोंपड़ी में अनंत हुआ, आता ही नहीं।' प्रो। पूर्ण सिंह की कविता 'जांगली छोहर' भी इस क्षेत्र के जीवन की गवाही बनती है। प्रो. पूर्ण सिंह महान प्रतिभा का कवि था और वह मानवीय मानसिकता में गहराई तक पहुंचकर मानव के सबसे अधिक प्रिय भाव को प्रकाशित कर देता था। उसने इस क्षेत्र के बारे में लिखा था, 'मुझे महसूस हुआ है जैसे मैं किसी जादू के देश में आ गया हूं। यहां बच्चे फूल हैं, वृक्ष मानव हैं और नारियां सौंदर्य का साकार स्वरूप दिखाई देती हैं। धरती आकाश जहां मिलते हैं, वहां ही मैत्री का स्नेह है।'पुरातन शास्त्रों में आता है कि मूला स्थान अर्थात मुल्तान भी देविका की धारा के निकट ही था। यह बात निश्चित है कि देविका की धारा मुल्तान तक भी जाती होगी। अवश्य ही...देग नदी का फासला अपने स्रोत से चलकर रावी में संगति तक दो सौ किलोमीटर से अधिक ही है। रावी के पानी में यह दाएं हाथ से शामिल होती है। जिस प्रकार रावी और पंजाब की शेष नदियों की चाल तेज रही है, वैसे ही लोगों के स्वभाव भी तीखे और रुष्ट किस्म के रहे हैं। नगरों में यदि शिष्ट स्वभाव के कुटिल लोग रहते थे तो दूर जंगलों में सादे लोग भले मानस किस्म के-जिन्हें हम जांगली कहते थे। वे जांगली खुद को राजपूत समझते थे। वे शूरवीर लोगों से अपना विरसा मिलाकर प्रसन्न होते थे। नूरा नहंग इस क्षेत्र का लोककवि था। वह अपने खेतों में झोंपड़ी बनाकर रहता था और आज भी जांगली लोगों के दिलों की धड़कन में बसा-रसा हुआ है-पंजाबियों की बात कैसीलड़ना है किस काम कारक्तपात होता है लोगों कारक्तरंजित हुआ है नदी का पानी।कई जगहों पर रावी और देग के निकट बसने वाले लोगों की भाषा बहुत मधुर और शिष्ट है-जितवल यार उतेवल काअबा।मैं हज करों दिहुं रातीं।न गुण रूप न दौलत पल्ले।हिक ओंदी जात पछाती।रावी के उत्तर में रावी और चिनाब के बीच के क्षेत्र में जो छोटी तूफानी नदियां चलती हैं, उनमें से देग अधिक शक्तिशाली है। शायद कभी, शताब्दियों पूर्व जब सिंधु और राजस्थान में सागर रहा होगा और शिवालिक में हिमपात तथा वर्षा का जोर रहा होगा, तब देविका भी शक्तिशाली धारा के रूप में चलती होगी। मगर अब तो एक मामूली जलधारा ही है। हां, पूर्ण भगत और महान पंजाबी लेखक और चिंतक गुरब2श सिंह प्रीतलड़ी इसी क्षेत्र से संबंध रखते थे, इसलिए देविका भी महान रही होगी। मगर अब तो मुझे लगता है, जैसे वह एक मुल्तानी काफी सुनाकर हमें कह रही हो-सजनां दी महमानी खातरखून जिगर दा छानी दा।की साडा मंजूर ना करसेंहिक कटोरा पाणी दा?देविका अथवा देग का स्रोत मैनाक पर्वतमाला (शिवालिक) में ज6मू क्षेत्र के जसरोता के आंचल में से आरंभ होता है, मगर उस पर्वतमाला पर क्योंकि हिमपात नहीं होता, इसलिए देविका का स्वभाव अब सदानीरा नहीं रहा। वर्षा ऋतु के अलावा उसमें बहुत कम पानी रहता है। फिर भी उसकी धारा कुछ समय में ही अपने क्षेत्र की भूमि को जितना उपजाऊ बना देती है, उसी वरदान के कारण लोग उसे वर्ष भर याद रखते हैं। मोह-मोहब्बत से...। पाणिनी ने भी 'अष्टाध्यायी' में लिखा है कि देविका अपने तटों पर रौसली (रजस्वला अथवा बरसाती) मिट्टी की एक तह छोड़ जाती है जो फसल के लिए लाभकारी होती है -साभार-सुजलाम
पानी- याद आएगी नानी
रोटी की चाह
है रोटी की चाह जिन्हें, क्या आएगी उनको कविता
क्या कभी किसी भूखे ने, लिखी कोई कविता
हे कवि, क्या है उद्देश्य तुम्हारा
क्या सौंदरय वणॆन तक सीमित है तुम्हारी कलम
क्या नहीं दिखती भूख बेहाली
क्या तुमको दिखती नहीं गरीबी की जलन
हे रचनाकार, कभी भी शायद रहे होंगे भूखे
तुम तो उपवास मनाते हो,अरे उनका तो सोचो जो हर दिन उपवास रहते हैं
ये वे हैं जिन पर कोई कुछ लिखता नहीं
ये वे हैं जिनको जंचती कोई कविता नहीं
ये नंगे भूखे हैं, नहीं विद्या का ग्यान इन्हें
तुम्हारी लेखनी की गहराई का न है भान इन्हें
करो कुछ इनके लिए भी करो, कविता से नहीं करमों से
तुम्हारी कविता में है वो शीतलता नहीं
शांत करे जो इनके पेट की जलन
गरीबों की नहीं, गरीबी को मिटाना है
आज इंसान अपने सोच व मन से गरीब है
दूर करना है अपनी सोच को हमें
भूख नहीं पर अपनी रोटी को बांट सकते हैं हम.....
महाबीर सेठ- जालंधर