लखनऊ सहमा हुआ था





30 सितबंर 2010। लखनऊ आज सुबह से ही सबके नजरों में था। लोग डरे नहीं थे। सहमे भी नहीं थे। लेकिन सड़कों पर अजीब सी बैचेनी थी। खामोशी थी। हैरानी थी। सुबह से दोपहर। वक्त का पहिया तेजी के साथ चल रहा था। इस बीच दोपहर बीतने लगी। 3 बज गए। सवा तीन और फिर साढ़े तीन। लोगों की निगाहें टीवी से चिपकी थी। हम लोग अदालत तक नहीं गए। एक च...क्कर जरूर काटा। डालीबाग से अलीगंज। वहां से लखनऊ विश्वविधालय। कैसरबाग बस अड्डे। बसें खड़ी थी। मुसाफिर तो थे, लेकिन बसें नहीं। सड़कें सुनसान होती चली गईं। हजरतगंज में भी लोग नहीं दिखे। लखनऊ सहमा हुआ था। खास कर पुराना लखनऊ। चौक और नक्खास, चौपटिया। मुस्लिम बाहुल्य वाले इलाके से अफवाहें आ रही थीं। कहीं लाठी चलाने तो कहीं बम मिलने की। अदालत में फैसले की घड़ी आई। सब सब्र से फैसला सुनना चाहते थे। 24 सितंबर तक जहां फैसला मुसलमानों की तरफ जाता बताया जाता रहा, वहीं 30 सितंबर को त्रिकोणीय हो गया। यानि सभी पक्षों को बराबर-बराबर जमीन मिल गई। रात 12 बजे तक सब ठीक रहा। इंशा अल्ला करें सब ठीक रहे। अब सोने जा रहा हूं। रात ठीक रही तो 1 अक्तूबर को मेरा जन्म दिन है। ठीक से मन जाएगा, नहीं तो शुक्रवार को भी शायद ही छुट्टी मिल पाए। शुभ रात्रि.....

भारतीयों के पैसों पर ठाठ, फिर भी हूपर नाराज

खराब तैयारियों का ढोल पीट रहे कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन (सीजीएफ) के मुख्य कार्यकारी माइक हूपर खुद पिछले दो साल से भी ज्यादा समय से भारत में राजसी ठाठ के मजे उठा रहे हैं। बावजूद इसके मिस्टर हूपर हैं कि खुश होने को राजी ही नहीं होते। एक टीवी चैनल की मानें तो करोड़ों भारतीयों की गाड़ी कमाई पर हूपर ऐश कर रहे हैं और आलोचना कर रहे हैं। चैनल का दावा है कि पिछले २६ महीनों से हूपर का बोझ सीडब्ल्यूजी आयोजन समिति भुगत रही है। जिस आलीशान घर में वे ठहरे हैं, उसका सालाना खर्चा 18 लाख रुपए से भी ज्यादा है। आयोजन समिति 4 लाख 50हजार रुपए मासिक किराए के रूप में चुका रही है। तिमाही किस्त के आधार पर आयोजन समिति को 13लाख 50रुपए देने पड़ रहे हैं। सिर्फ घर का किराया ही नहीं, बल्कि उनकी खिदमत में लगे छह लोगों को 37हजार 375रुपए मासिक वेतन का भी भुगतान किया जा रहा है। बात सिर्फ यहीं नहीं रूकी बल्कि आयोजन समिति ने एक साल के दौरान 86लाख रुपए के टैक्स का बोझ भी देशवासियों के कंधों पर ही डाला है। भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) के उपाध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा ने इस पूरे मामले पर जांच की मांग की है। उन्होंने कहा, "मुझे इस बारे में पूरी जानकारी नहीं है। हम तथ्य इकट्ठा कर रहे हैं कि आखिर सही मायने में इन लोगों पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। इसके अलावा क्या वे पिछले कॉमनवेल्थ में भी इसी प्रक्रिया से गुजरे थे या नहीं। पूरी जानकारी इकट्ठा करने के बाद ही हम कोई प्रतिक्रिया करेंगे।"हूपर पहले से ही भारत के खिलाफ अपनी बयानबाजी के कारण सभी की आंख का कांटा बन चुके हैं। कम बोलने की सीख देते हुए मल्होत्रा ने कहा, "वह यहां लंबे समय से हैं और निश्चित तौर पर वह आयोजन समिति का एक हिस्सा है। इसलिए उन्हें इस तरह की बयानबाजी नहीं करनी चाहिए।" हूपर ने हाल ही में कहा था कि सरकारी एंजेसियों ने सही समय पर एक्शन नहीं लिया, जिसका खामियाजा अब भुगतना पड़ रहा है। हूपर के बयान पर भड़की शीला दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भारत की जनसंख्या के बारे में कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन (सीजीएफ) के मुख्य कार्यकारी माइक हूपर के बयान से खासी नाराज हैं। शीला दीक्षित ने कहा कि हूपर की यह टिप्पणी अवांछनीय और गैर राजनयिक है। हूपर ने खेलों की तैयारियों में देरी के लिए दिल्ली की अधिक जनसंख्या और ट्रैफिक जाम को दोषी ठहराया था।नयी दुनिया

ये हैं तीन जज, जो सुनायेंगे अयोध्या पर फैसला

न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा
जन्मतिथि- 02/10/1948 कार्यभार ग्रहण -20/10/2005 अवकाश प्राप्त करने की तिथि- 01/10/2010। संक्षिप्त परिचय १967 में स्नातक तथा एलएलबी 1970 में। जुलाई 1989 से अक्टूबर 1991 तक चीफ लॉ आफिसर उप्र वित्त निगम, संयुक्त सचिव व ज्वांइट एलआर उप?्र सरकार, सितंबर 1994 से 1997 तक। विशेष सचिव व एडीशनल एलआर 1997 से फरवरी2002 तक। सचिव न्याय और एलआर मई 2002 से जुलाई2002 तक। मुख सचिव संसदीय कार्य उप्र सरकार अगस्त 2003 से अगस्त 2004 तक। प्रमुख सचिव न्याय और एलआर अगस्त 2004 से अक्टूबर 2005 तक। उप्र प्रांतीय न्यायिक सेवा में 1972 में नियुक्त 1985 में उच्च न्यायिक सेवा में पदोन्नति, 2002 में जिला एवं सेशन जज के रूप में पदोनति। 20/10/2005 को हाईकोर्ट के जज बने स्थायी जज के रूप में 17/09/2007 को शपथ ग्रहण।

न्यायमूर्ति सुधीर अग?वाल
जन्म - 24/04/1958 कार्यभार ग्रहण - 5/10/2005 अवकाश प्राप्त करने की तिथि- 23/04/2020। संक्षिप्त परिचय स्नातक साइंस आगरा विश्वविद्यालय आगरा 1977, मेरठ विश्वविद्यालय से एलएलबी 1980 में। 1980 में एडवोकेट के तौर पर पंजीकरण। 1980 से इलाहाबाद हाईकोर्ट में टैक्स मामलों की प्रैक्टिस शुरू की। बाद मंे सर्विस मैटर की प्रैक्टिस। स्टैंडिंग कौसिल उप्र पावर कारपोरेशन, उप्र राजकीय निर्माण निगम, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। 19 सितंबर 2003 से एडीशन एडवोकेट जनरल इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति बनने तक। स्थायी न्यायमूर्ति के रूप में 10/08/2007 को शपथ ग्रहण।
न्यायमूर्ति सैय्यद रफत आलम
जन्म-31/01/1952 कार्यभार ग्रहण -21/12/2002 अवकाश प्राप्त करने की तिथि- 30/01/2014 संक्षिप्त परिचय स्नातक साइंस (आनर्स) वर्ष 1971 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, एलएलबी 1975 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से। 1975 में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस के लिए पंजीकरण कराया। सिविल, सर्विस व राजस्व की प्रैक्टिस शुरू की। अलीगढ़ सिविल कोर्ट में दो साल तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 25 साल की प्रैक्टिस की। स्थायी न्यायधीश के रूप में 21/12/2002 से।

24 सितंबर एक टर्निग प्वॉइंट


अयोध्या विवाद पर फैसला आने से पहले फ्रांस के एक लेखक ने कहा है कि अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से राजीव गांधी जिम्मेदार थे। उन्होंने यह भी कहा है कि यह फैसला मुस्लिमों को मुख्यधारा में लाने का एक अच्छा मौका है। पेरिस में दक्षिण एशियाई राजनीति एवं इतिहास पढ़ाने वाले डॉ. क्रिस्टॉफ जैफ्रेलो ने अपनी पुस्तक रिलिजन, कास्ट एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया में कहा है कि अयोध्या का विवादित ढांचा गिराए जाने के पीछे राजीव गांधी की अप्रत्यक्ष भूमिका थी क्योंकि वह हिंदू और मुसलमान समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाने की कोशिश करते थे। उन्होंने कहा है, शाहबानो मामले से लेकर विश्व हिंदू परिषद के कहने पर विवादित ढांचे का ताला खुलवाने और फैजाबाद को राम की भूमि कहते हुए अपना चुनाव प्रचार शुरू करने तक वह हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि यह फैसला भारतीय नेतृत्व के लिए मुसलमानों को फिर से मुख्यधारा में लाने का मौका होगा। भारत के इतिहास में 24 सितंबर एक टर्निग प्वॉइंट साबित होगा। उनका मानना है कि मेल-मिलाप के प्रयास होने चाहिए और हिंदूवादी ताकतों की ओर से यह पहल होनी चाहिए। उनके अडि़यल रवैये से मुश्किलें ही आएंगी। जैफ्रेलो ने कहा कि भगवा ब्रिगेड को मुस्लिमों की खिलाफत करने से पहले दो बार सोचना पड़ेगा क्योंकि 2009 के लोकसभा चुनाव में भारतीय मध्य वर्ग का रुख उनके खिलाफ था। मुसलमानों के बाबत उन्होंने कहा कि उनके खिलाफ फैसले का आना दोधारी तलवार जैसा होगा क्योंकि वे इसे बार-बार पराजय स्वीकार करने के रूप में देख सकते हैं।

तो यह है राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद का इतिहास



अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद का वर्तमान अध्याय 22-23 दिसंबर, 1949 को मस्जिद के अंदर कथित तौर पर चोरी - छिपे मूर्तियां रखने से शुरू हुआ था.
शुरूआती मुद्दा सिर्फ़ ये था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में क़ायम कथित राम चबूतरे पर वापस जाएँ या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे.
मगर 60 साल के लंबे सफ़र में अदालत को अब मुख्य रूप से ये तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है?
वैसे तो हाईकोर्ट को दर्जनों वाद बिंदुओं पर फ़ैसला देना है, लेकिन दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया?
इसी के साथ कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं. मसलन क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं , उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए?
अदालत को ये भी तय करना है कि क्या इसी मसले पर क़रीब सवा सौ साल पहले 1885 – 86 में अदालत के ज़रिए दिए गए फ़ैसले अभी लागू हैं.
उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था, जिसे अदालत ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ऐसा होने से वहाँ रोज़- रोज़ सांप्रदायिक झगड़े और ख़ून- ख़राबे का कारण बन जाएगा.
अदालत ने ये भी कहा था कि हिंदुओं के ज़रिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन अब इतिहास में हुई ग़लती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता.
मामले को हल करने के लिए सरकारों ने अनेकों बार संबंधित पक्षों की बातचीत कराई, लेकिन कोई निष्कर्ष नही निकला. लेकिन बातचीत में मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई अथवा नही.
सुप्रीम कोर्ट ने भी 1994 में इस मामले में अपनी राय देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ कोई मंदिर तोड़कर कोई मस्जिद बनाई गई थी.
गेंद अब हाईकोर्ट के पाले में है. मसला तय करने के लिए अदालत ने ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई करवाकर एक रिपोर्ट भी हासिल कर ली है, जिसमें मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत , खम्भे , एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं.
लेकिन मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की बात कही है, जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं.
अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं.
सरकार मुकदमे में पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ़ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है. सरकार की तरफ़ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है.
इसी दिन मस्जिद में मूर्तियाँ रखने का मुक़दमा भी पुलिस ने अपनी तरफ़ से क़ायम करवाया था, जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था.
इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई.
आरोप हैं कि तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट केके नैयर भीतर- भीतर उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं. इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं.
जनवरी 16, 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की कि मूर्तियों को वहाँ से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए.
सिविल कोर्ट ने ऐसा ही आदेश पारित कर दिया. अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था भी बहाल रखी. इस मुक़दमे में सरकार को नोटिस देने की औपचारिकता पूरी नही की गई थी. संभवतः इसीलिए कुछ दिन बाद ऐसा ही एक और दावा दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया.
फिर 1959 में हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुक़दमा दर्ज करके कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए.
निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि मंदिर को तोड़ने के प्रयास किए गए पर वह सफल नही हुए और हिंदू वहाँ हमेशा पूजा करते रहे. उनका यह भी कहना है कि 1934 के दंगों के बाद मुसलमानों ने डर के मारे वहाँ जाना छोड़ दिया था, और तब से वहाँ नमाज़ नही पढ़ी गई. इसलिए हिंदुओं का दावा पुख़ता हो गया.
दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुक़दमा दायर करके कहा कि बादशाह बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है. इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा. इसे मस्जिद घोषित कर उन्हें क़ब्जा दिलाया जाए.
मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुक़दमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर और वह अब उससे पलट नही सकता. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अदालत का तत्कालीन फ़ैसला अब भी बाध्यकारी है.
मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के क़ब्ज़े और दावे को स्वीकार करता है.
मुस्लिम पक्ष तर्क में यह तो मानता है कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह ख़ाली जगह थी.
क़रीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा. लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने का ज़बरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया. इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता तथा उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे.
एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज फ़ैज़ाबाद के एम पाण्डे ने एक फऱवरी 1986 को विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफ़ा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई.
इसी की प्रतिक्रिया में फ़रवरी, 1986 में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया.
ताला खोलने के आदेश के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय की अपील अभी भी कोर्ट में लंबित है.
मामले में एक और मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया.
इस दावे में स्वीकार किया गया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखी गईं. दावा किया गया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक.
इस मुक़दमे में मुख्य रूप से ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई. दावे के समर्थन में अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया गया है.
यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है. इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया. श्री अशोक सिंघल इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी हैं.
इस तरह पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना.
याद रहे कि राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश फ़ैज़ाबाद में जन सभा कर राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ किया था. चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर वीएचपी ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना.
विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पूर्व इस मामले में कोर्ट आदेश के पालन की बात कही थी, पर अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती.
निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद अदालत की लड़ाई में एक दूसरे के विरोधी हैं.
जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी. उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है. उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं.
हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं.
इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं. इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं. धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के क़रीब हैं.
निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है. मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है. सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है.
उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं. मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे.
शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था. लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली.
ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस स्थान का मालिकाना हक़ तय करना है जहाँ पर विवादित मस्जिद थी.
इस तरह अब मात्र क़रीब आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है. जीतने वाले पक्ष को अगल-बग़ल की अधिग्रहीत भूमि ज़रुरत के मुताबिक मिलेगी.
कहने को यह आधा बिस्वा ज़मीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं. अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा इससे जुडी है. अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व होगा.
इसलिए सब मिलाकर यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए चुनौती बन गया है।

रामदत्त त्रिपाठी, बीबीसी संवाददाता

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