तो यह है राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद का इतिहास



अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद का वर्तमान अध्याय 22-23 दिसंबर, 1949 को मस्जिद के अंदर कथित तौर पर चोरी - छिपे मूर्तियां रखने से शुरू हुआ था.
शुरूआती मुद्दा सिर्फ़ ये था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में क़ायम कथित राम चबूतरे पर वापस जाएँ या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे.
मगर 60 साल के लंबे सफ़र में अदालत को अब मुख्य रूप से ये तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है?
वैसे तो हाईकोर्ट को दर्जनों वाद बिंदुओं पर फ़ैसला देना है, लेकिन दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया?
इसी के साथ कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं. मसलन क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं , उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए?
अदालत को ये भी तय करना है कि क्या इसी मसले पर क़रीब सवा सौ साल पहले 1885 – 86 में अदालत के ज़रिए दिए गए फ़ैसले अभी लागू हैं.
उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था, जिसे अदालत ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ऐसा होने से वहाँ रोज़- रोज़ सांप्रदायिक झगड़े और ख़ून- ख़राबे का कारण बन जाएगा.
अदालत ने ये भी कहा था कि हिंदुओं के ज़रिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन अब इतिहास में हुई ग़लती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता.
मामले को हल करने के लिए सरकारों ने अनेकों बार संबंधित पक्षों की बातचीत कराई, लेकिन कोई निष्कर्ष नही निकला. लेकिन बातचीत में मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई अथवा नही.
सुप्रीम कोर्ट ने भी 1994 में इस मामले में अपनी राय देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ कोई मंदिर तोड़कर कोई मस्जिद बनाई गई थी.
गेंद अब हाईकोर्ट के पाले में है. मसला तय करने के लिए अदालत ने ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई करवाकर एक रिपोर्ट भी हासिल कर ली है, जिसमें मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत , खम्भे , एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं.
लेकिन मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की बात कही है, जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं.
अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं.
सरकार मुकदमे में पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ़ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है. सरकार की तरफ़ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है.
इसी दिन मस्जिद में मूर्तियाँ रखने का मुक़दमा भी पुलिस ने अपनी तरफ़ से क़ायम करवाया था, जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था.
इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई.
आरोप हैं कि तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट केके नैयर भीतर- भीतर उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं. इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं.
जनवरी 16, 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की कि मूर्तियों को वहाँ से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए.
सिविल कोर्ट ने ऐसा ही आदेश पारित कर दिया. अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था भी बहाल रखी. इस मुक़दमे में सरकार को नोटिस देने की औपचारिकता पूरी नही की गई थी. संभवतः इसीलिए कुछ दिन बाद ऐसा ही एक और दावा दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया.
फिर 1959 में हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुक़दमा दर्ज करके कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए.
निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि मंदिर को तोड़ने के प्रयास किए गए पर वह सफल नही हुए और हिंदू वहाँ हमेशा पूजा करते रहे. उनका यह भी कहना है कि 1934 के दंगों के बाद मुसलमानों ने डर के मारे वहाँ जाना छोड़ दिया था, और तब से वहाँ नमाज़ नही पढ़ी गई. इसलिए हिंदुओं का दावा पुख़ता हो गया.
दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुक़दमा दायर करके कहा कि बादशाह बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है. इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा. इसे मस्जिद घोषित कर उन्हें क़ब्जा दिलाया जाए.
मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुक़दमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर और वह अब उससे पलट नही सकता. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अदालत का तत्कालीन फ़ैसला अब भी बाध्यकारी है.
मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के क़ब्ज़े और दावे को स्वीकार करता है.
मुस्लिम पक्ष तर्क में यह तो मानता है कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह ख़ाली जगह थी.
क़रीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा. लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने का ज़बरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया. इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता तथा उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे.
एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज फ़ैज़ाबाद के एम पाण्डे ने एक फऱवरी 1986 को विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफ़ा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई.
इसी की प्रतिक्रिया में फ़रवरी, 1986 में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया.
ताला खोलने के आदेश के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय की अपील अभी भी कोर्ट में लंबित है.
मामले में एक और मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया.
इस दावे में स्वीकार किया गया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखी गईं. दावा किया गया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक.
इस मुक़दमे में मुख्य रूप से ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई. दावे के समर्थन में अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया गया है.
यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है. इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया. श्री अशोक सिंघल इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी हैं.
इस तरह पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना.
याद रहे कि राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश फ़ैज़ाबाद में जन सभा कर राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ किया था. चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर वीएचपी ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना.
विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पूर्व इस मामले में कोर्ट आदेश के पालन की बात कही थी, पर अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती.
निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद अदालत की लड़ाई में एक दूसरे के विरोधी हैं.
जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी. उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है. उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं.
हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं.
इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं. इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं. धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के क़रीब हैं.
निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है. मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है. सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है.
उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं. मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे.
शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था. लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली.
ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस स्थान का मालिकाना हक़ तय करना है जहाँ पर विवादित मस्जिद थी.
इस तरह अब मात्र क़रीब आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है. जीतने वाले पक्ष को अगल-बग़ल की अधिग्रहीत भूमि ज़रुरत के मुताबिक मिलेगी.
कहने को यह आधा बिस्वा ज़मीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं. अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा इससे जुडी है. अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व होगा.
इसलिए सब मिलाकर यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए चुनौती बन गया है।

रामदत्त त्रिपाठी, बीबीसी संवाददाता

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