जय हो खोरवा पुरवा, जय हो पिंकी


उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर का एक छोटा से गांव का पुरवा खोरवा गांव, जहां के लोगों को खेत खलिहान और काम से मतलब है । अचानक स्माइल पिंकी से मिर्जापुर के पिछ़ड़े गांव का नाम दुनिया के सबसे चकाचौंध नगरी अमरीका के लास एंजिल्स में चमक उठा । गांव के गरीब परिवार की पिंकी का नाम अब मिर्जापुर से होते हुए यूपी की राजधानी लखनऊ, दिल्ली के रास्ते लास एंजिल्स में गूंज रहा है । यह केवल मिर्जापुर के छोटे गांव की खुशी नहीं है,बल्कि यूपी और समूचे हिंदोस्तान के लिए बड़े ही गर्व की बात है । मिर्जापुर जैसे जिले के अत्यंत पिछड़े गांव में जहां रसूखदारों और कर्मकांड धर्मअधीकारी की हुकूमत हो, वहां पिंकी जैसी बच्चियों की क्या बिसात । यूपी का एक न्यूज चैनल जिस तरह की पिंकी की झोपड़ पट्टी जैसे घर का लाइव कास्ट कर रहा था, पिंकी का छोटा भाई जिस तरह कपड़े में उछलकूद रहा था, आप सहज ही गरीबी का आकलन कर सकते हैं । स्लमडाग मिलियनेयर के बाद लघु वृत्त चित्र 'स्माइल पिंकी' की नायिका पिंकी को आस्कर समारोह में हिस्सा लेने के लिए निर्देशक मेगन मायलन ने उनके माता-पिता के साथ न्योता भेजा है । स्माइल पिंकी को आस्कर में सर्वश्रेठ लघु वृत्त चित्र में नामित किया गया है । पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर और मां शिमला देवी के साथ पूरा खोरवा गांव खुश है । यह वही पिंकी है जब ९ साल पहले पैदा हुई थी, तब इस बच्ची के होंठ कटे-फटे थे । बच्ची ठीक से बोल-हंस नहीं पा रही थी । सामाजिक कार्यकर्ता ने आपरेशन करवाया, और पिंकी को मुस्कान दी । इसी मुस्कान पर मेगन मायलन ने लघु वृत्त चित्र बनाई, जो आस्कर में सर्वश्रेष्ठ नामित हुई ।

वाह रे पंचायत! सोचा, लड़की का क्या होगा?

मुजफ्फर नगर की पंचायत ने निम्न तबके वाली लड़की के हित में नहीं, बल्कि उच्च विरादरी के हक में फैसला सुनाया है । यह तो वही हुआ कि -- जबरा मारे, निबरा को रोने भी न दे । एसे में तो अमीरजादे कुछ भी करें, गरीब पैसा लेता रहे । यह कहां का कानून है ?
प्रेमी को देना पड़ेगा खर्चा , खबर यह नहीं बल्कि यह होनी चाहिए कि अब गरीब तबके की लड़की का क्या होगा ? भारतीए समाज में एसा कोई प्रावधान नहीं है,जिसमें गर्भवती लड़की को किसी और के खूंटे बांधा जाए । पंचायत का फैसला यह होना चाहिए कि गरीब लड़की के साथ अगर प्रेम किया गया है तो उसके प्रेमी के साथ विवाह होना चाहिए । यह कहां से उचित फैसला हुआ, कि गरीब को पैसा देकर मुंह बंद करवा दो । मैंने भी एक अखबार में इस खबर को देखा । एजैंसी के रिपोर्टर ने मसाला लगाकर खबरें प्रस्तुत की थीं, अखबार ने भी बढिया डिस्पले देकर पाठक तक पहुंचाया । लेकिन क्या सुबह इस खबर को पढ़ कर आपकी आत्मा ने कोई सवाल नहीं किया । अगर नहीं तो आप सो रहे हैं ?
बुरा मत मानना क्या गरीब लड़की की जगह आप में से किसी की लड़की होती, उच्च श्रेणी के लड़के की जगह आपके इलाके के किसी करोड़पति या फिर किसी बड़े नेता का लड़का होता, तब आप क्या करते । मान लो आपको कहा जाता कि १ करोड़ लेकर बेटी का गरभपात करवा लें, किसी के साथ ब्याह दें । क्या आप एसा करते ? जरा सोचिए ....
यह मुजफ्फर नगर की पंचायत का फाल्ट नहीं है, फाल्ट हमारे समाज का है । हमेशा से ही गरीबों को कुचला गया है, गरीब लड़कियों के चीरहरण किए गए हैं । वह चाहे मुंशी प्रेमचंद की कोई कहानी हो, अथवा कोई बड़े लेखक का जासूसी उपन्यास अथवा किसी बड़े डायरैक्टर की कोई फिल्म क्यों न हो ? आपने कहानी अमित जी के पोस्ट में पढ़ी होगी,कहानी मैं नहीं बताऊंगा । लेकिन इतना जरूर कहूंगा, कि सोचिए क्या यह ठीक है ।

डोडे खाओ, ड्यूटी करो

एक फिल्म देखी थी, पुलिस वाला गुंडा । आईपीएस अफसर के गिरफ्तारी के बाद जब मैंने कुछ लिखना चाहा तो, पुलिस वाला गुंडा फिल्म के दृश्य आंखों के सामने आ रहे थे । हालांकि फिल्म में पुलिस की गुंडई, बदमाशों को मारने के लिए दिखाई गई थी । लेकिन रील लाइफ और रीयल लाइफ में यही फरक है । रीयल लाइफ में पुलिस की गुंडई कहीं ज्यादा है । दुनिया के जितने के गलत काम होते हैं, पुलिस करती है, करवाती है । चाहे जुआघर हो, कैसीनो हो, वेश्याओं के कोठे हों, नशीले दवाइयों का व्यापार हो, किसी का कत्ल हो । ऐसा नहीं कि सभी पुलिस वाले गलत धंधे में लिप्त हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि गलत धंधे बिना पुलिस की रजामंदी से नहीं हो रहे हैं । मुंबई में पुलिस ने ही एक बड़े पुलिस अधिकारी को दबोच कर यह साबित किया है, कि समाज के हर तबके में चोर हैं । फिर चाहे पुलिस, नेता और आम लोगों को समाज क्यों न हो ? यहां तक कि चौथा स्तंभ भी इसमें शुमार हो गया है । किसे सही कहा जाए?मुंबई में भारी मात्रा में ड्रग्स के साथ आईपीएस अफसर शाजी मोहन 93 बैच का आईपीएस है। जम्मू कश्मीर कैडर के इस अधिकारी के पास से ११ किलो ड्रग्स बरामद किए गए हैं । मुंबई एटीएस ने गिरफ्तार किया है। इससे पहले ये अधिकारी चंडीगढ़ में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो में तैनात था। पंजाब और हरियाणा में तो नशीले पदाथॆ की खेप रोज पकड़ी जाती है । पंजाब से सबसे ज्यादा खेप राजस्थान से चल कर आती है । जिसमें सफेदपोश के साथ-साथ खाकीधारी भी शामिल हैं । राजस्थान और पंजाब राज्य पाकिस्तान से भी सटा है । आए दिन नशीले पदाथो की खेप पकड़ी जा रही है । हैरोइन, चरस, अफीम और पता नहीं क्या-क्या ? सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या पुलिस को यह नहीं पता । रात होते ही चौराहों, गलियों और सड़कों पर घूमने वाली पुलिस खुद नशे की तलाश में रहती है । पंजाब में तो यह आम है, डोडे खाओ, ड्यूटी करो । फिर चाहे सीएम की ड्यूटी में क्यों न लगे हों ।

राष्ट्रवादी रहमान













राष्ट्रवादी मिलियनेयर भारतीय फिल्म को बहुप्रतिष्ठत हालीवुड पुरुस्कार 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' भले ही सर्वश्रेष्ठ सक्रीन प्ले,निर्देशन तथा संगीत के संयुक्त आधार पर मिला हो लेकिन संगीतकार ए.आर.रहमान को मिले इस पुरुस्कार में भारतीयता की जीत है । संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के बावजूद जब देश में सबकुछ धर्म -जाति और क्षेत्र के आधार पर बांटा जा रहा हो, एसे में रहमान की इस उपलब्धि को राष्ट्र के नाम समर्पित करना कइयों के लिए सबक या प्रेरणास्रोत बन जाना चाहिए । गौर है कि उक्त फिल्म का गुलजार लिखित रहमान का संगीतबद्ध गीत 'जय हो' गाना सर्वश्रेष्ठ मौलिक संगीत रचना के खिताब से नवाजा गया है । निश्चित रूप से रहमान का रचा यह इतिहास उनके भारतीयता में डूब जाने या राष्ट्रयिता से ओत-प्रोत हो जाने का ही परिणाम है । इस दृष्टि से अल्लाह रखा रहमान 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' जीतने वाले पहले भारतीए हैं । संगीत की रचना के समय भी भारतीयता की कल्पना में खोए रहने वाले रहमान की रचनाएं उनके समर्पण को कई बार प्रकट कर चुकी है । संगीत के इस साधक में भारतीयता को समझने, भारतीयता में डूबने का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपने संगीत के लिए कभी छत्तीसगढ़ को जानना चाहते हैं तो कभी गुजरात के गांवों को । कभी वह कश्मीर की वादियों में गुनगुनाया है तो कभी त्रिपुरा की तराइयों में उसकी कल्पनी पहुंची । जय हो रहमान, जय हो हिंद ....

‘सुभाष की सेना’ पर लगे थे आरोप!


देश की आजादी के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास करने की मुहिम में आजाद हिंद फौज (आईएनए) के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस के योगदान को किसी भी कीमत पर कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन उनके फौजियों को मलाल है कि आजाद भारत की पहली सरकार भी उनके साथ न्याय न कर सकी और देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा की नजर में तो ये फौजी अनुशासनहीन भी थे।आईएनए की अग्रिम पंक्ति के नायक रहे और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना से विद्रोह करने के आरोप में कोर्ट मार्शल झेलने के बाद फांसी की सजा सुनाए गए कैप्टन अब्बास अली ने अपनी किताब में यह खुलासा किया है।आजादी के बाद देश में समाजवादी आंदोलन से जुड़ने वाले कैप्टन अब्बास ने अपनी आत्मकथा ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर’ में 1945 में पंडित नेहरू के नेतृत्व में बनी पहली अंतरिम सरकार द्वारा आईएनए के फौजियों के साथ किए गए बर्ताव का बेबाकी से वर्णन किया है।आजादी के बाद जनता पार्टी के सदस्य के रूप में उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य रहे कैप्टन अली लिखते हैं कि विश्वयुद्ध में आईएनए के सिपाहियों को ब्रिटिश सरकार से बगावत कर जापान का साथ देने के आरोप में कोर्ट मार्शल के दौरान फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद, 1946 में बनी अंतरिम सरकार ने अधिकांश सैनिकों की सजा को मुल्तवी कर दिया। लेकिन कुछ एक सिपाहियों को ब्रिटिश अधिकारियों ने फिर भी सजा-ए-मौत दे दी और भारत सरकार कुछ न कर सकी। इतना ही नहीं कोर्ट मार्शल की कार्रवाई के दौरान भी उन लोगों के साथ जेलों में बुरा बर्ताव किया गया।कैप्टन अली के मुताबिक, “देश की आजादी के लिए आईएनए में भर्ती हुए सैनिकों को उम्मीद थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन सभी को भारतीय सेना में शामिल कर देश की सेवा का मौका दिया जाएगा। लेकिन हाय री किस्मत, हमारी अपनी सरकार ने ही हमारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया और वह भी नाकाबिल बताकर”। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि आईएनए में एक लाख से ज्यादा सैनिक थे और इनमें से 60 हजार से अधिक पहले ब्रिटिश फौज का हिस्सा थे।आमतौर पर माना जाता है कि आईएनए के केवल तीन युद्धबंदियों- जनरल शाहनवाज खां, कैप्टन सहगल और कैप्टन ढिल्लों को ही कोर्ट मार्शल का दंश झेलना पड़ा, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे हजारों सिपाहियों के खिलाफ देश की विभिन्न जेलों में यह कारवाई हुई और वह भी उनमें से एक थे।कैप्टन अली ने बयां किया, “बड़े अफसोस के साथ मुझे लिखना पड़ रहा है कि हम बागियों को यह कहकर आजाद भारत की सेना में शुमार नहीं किया गया कि ये फौजी अनुशासित नहीं हैं। मुझे याद पड़ता है कि देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने बयान दिया था कि चूंकि आईएनए के सिपाही अनुशासित नहीं हैं, इसलिए उन्हें दोबारा सेना में शामिल नहीं किया जाएगा और हमारी सरकार ने उनकी यह बात मान ली”। कैप्टन अली के मुताबिक इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह रही कि आईएनए के जनरल शाहनवाज खां ने, जो आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हुए और केन्द्र में मंत्री भी बने, अपने ही साथियों के साथ किए गए इस अपमानजनक रवैये के बारे में कुछ नहीं किया। इसके लिए सिर्फ डॉ. राममनोहर लोहिया ही बार-बार आवाज उठाते रहे।उन्होंने लिखा कि आजादी के बाद आईएनए के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल करने या न करने का सवाल उठाना ही निरर्थक था।खैर, अगर यह सवाल उठाया भी गया तो फिर उन्हें बगावती बताकर सेना में शामिल करने से अयोग्य ठहराए जाते वक्त यह सवाल क्यों नहीं उठाया गया कि देश की आजादी के इन दीवानों ने आखिरकार बगावत किसके खिलाफ की थी। अपने देश के खिलाफ या फिर देश के दुश्मनों के खिलाफ।कैप्टन अली लिखते हैं कि एक सैनिक के लिए उसके फौजी होने से अयोग्य बताने से बड़ी पीड़ा और कुछ नहीं हो सकती और इस पीड़ा का अंत यहीं नहीं हुआ, बल्कि कांग्रेसी सरकार ने इन सिपाहियों और अफसरों को 1972 तक न तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना और न ही किसी तरह की पेंशन या कोई सुख सुविधा दी। विपक्षी दलों के संसद से सड़कों तक पर्याप्त शोरगुल और जद्दोजेहद के बाद 1972 में इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी माना और पेंशन दी। लेकिन इस समय तक तमाम सिपाही मर चुके थे और जो बचे थे उन्हें सरकार ने दस्तावेजी सबूतों के अभाव में आईएनए का सिपाही ही नहीं माना। कुल मिलाकर स्थिति ज्यों की त्यों रही । - वार्ता

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