भारतीय ओबामा 'राहुल गाँधी' की फ़तेह

तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 3-0 से जीत दर्ज करने के बेहद करीब पहुंच चुकी है। महाराष्ट्र में वह बहुमत के करीब है, जहां उसके सरकार बनाने की राह में कोई रोड़ा नहीं है जबकि हरियाणा में वह सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी है लेकिन बहुमत के लिए आवश्यक जादुई आंकड़े से वह पांच सीट पीछे रह गई है। अरूणाचल प्रदेश में उसने विपक्षी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया है।निर्वाचन आयोग से मिले ताजा आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में कांग्रेस-राष्ट्रवादी गठबंधन (राकांपा) 101 सीटों पर जीत चुका है और 42 सीटों पर उसने बढ़त बनाई हुई है जबकि भाजपा-शिव सेना गठबंधन 63 सीटें जीत चुका है और उसने 29 सीटों पर बढ़त बना रखी है।इसके मुताबिक कांग्रेस-राकांपा गठबंधन को 143 और भाजपा-शिवसेना गठबंधन को 92 सीटें मिलने के आसार हैं। राज्य में विधानसभा की कुल 288 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 145 के जादुई आंकडें़ की जरूरत है।भाजपा और शिव सेना गठबंधन ने अपनी हार स्वीकार कर ली है। भाजपा और शिव सेना नेताओं ने राज्य में गठबंधन की हार के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) को जिम्मेदार ठहराया है।भाजपा ने चुनाव परिणामों को अपेक्षा के विपरीत बताया है। उधर, हरियाणा में कांग्रेस बहुमत के जादुई आंकड़े से पांच सीट पीछे रह गई है। यदि कांग्रेस यहां सरकार बनाने में सफल रहती है तो यह राज्य के इतिहास में पहला मौका होगा जब किसी सत्ताधारी दल की चुनावों के बाद दोबारा ताजपोशी होगी।निर्वाचन आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक कांग्रेस ने 39 सीटें जीत ली है और एक सीट पर वह बढ़त बनाए हुए है जबकि प्रमुख विपक्षी दल इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) ने 30 सीटोंचुनाव जीता है और एक पर बढ़त बना रखी है। वर्ष 2005 में इनेलो ने केवल नौ सीटों पर जीत दर्ज की थी।हरियाणा जनहित कांग्रेस छह सीटें, भाजपा चार सीटें जीतने में सफल रही है। शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने एक-एक सीट पर कब्जा जमाया है। अन्य सात सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की । "अरूणाचल प्रदेश में कांग्रेस ने सभी विपक्षी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया है। अब तक आए नतीजों के मुताबिक वह 33 सीटें जीत चुकी है जबकि पांच पर उसने बढ़त बना रखी है। यहां के प्रमुख विपक्षी दलों में राकांपा और तृणमूल कांग्रेस ने पांच-पांच सीटें जीती है जबकि दोनों दल एक-एक सीट पर बढ़त बनाए हुए हैं।मुख्यमंत्री दोरजी खांडू सहित कांग्रेस के तीन उम्मीदवार पहले ही निर्विरोध चुने जा चुके हैं। शेष 57 सीटों के लिए 13 अक्टूबर को मतदान हुआ था। इसमें 750,000 मतदाताओं में से 72 फीसदी ने मतदान किया था।

भगवंत पर तमाचा, कलाकारों का अपमान

पंजाब में कामेडी कलाकार भगवंत मान पर नेशनल हायवे अथोरटी पर तैनात टोल टैक्स के कारिंदों ने तमाचा मारकर पूरी कलाकार बिरिदारी का अपमान किया, पंजाब सरकार चुप है। अकेले भगवंत मान से ही नही बल्कि अम्बाला से लेकर जालंधर तक पड़ने वाले टोल टैक्स बरियार पर रोज गुंडा गर्दी होती है, नीली-लाल बत्तियों की कारों को छोड़कर सभी से अभद्र वयवहार किया जाता है। धक्के से जजिया कर वसूल किया जाता है। मान को तमाचा ही नही मारा बल्कि उसके चेहरे पर धारदार हथियार से हमला कर घायल भी कर दिया। एक कलाकार के लिए उसका चेहरा और आवाज ही सबकुछ होता है, ऐसे में मान के चेहरे पर चाकू से मारना उसके कैरियर के साथ उसका भविष्य ख़राब करना है। मामले में सरकार खामोश है, लेकिन कलाकारों को आगे आना चाहिए। जब एक कलाकार के साथ ऐसा सलूक किया जा सकता है, तो आप ख़ुद सोच सकते हैं, की पंजाब में आम इंसान की क्या औकात है, सरकारी सिस्टम से पंगा लेने का।

सींचेवाल को नही जानती हैं सत्ती!

पंजाब के साथ-साथ देश दुनिया में पर्यावरण के लिए सेवा करने वाले कपूरथला के संत बलबीर सिंह सींचेवाल को जालंधर में पली-बढ़ी आज की टीवी एंकर सतिंदर सत्ती नही जानती हैं। संत का भरे महफ़िल में नाम भूल जाना एक घटना नही बल्कि दुखद बात है। जालंधर में एक अख़बार और चैनल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में एंकरिंग कर रही सत्ती पंजाब के इस बड़े संत का नाम भूल गई, जो कई साल से जालंधर सहित पंजाब की शहरों को प्रढूषणमुक्त करने के लिए अपने सैकडों सेवादारों के साथ दिन रात एक कर लगे हैं
एक संत के लिए इससे दुखद बात और क्या होगी? सैकडों लोगों की महफ़िल में संत बलबीर सिंह ... और आगे भी है ... दो बार सींचेवाल नही कह सकी... जबकि सत्ती को बाकायदा कार्ड में संत बलबीर सिंह सींचेवाल का नाम लिख कर दिया गया था।
सत्ती जी अभी आपको पूरा पंजाब भी सही ढंग से नही जनता, आप पहले पंजाब के शख्शियत के नामों को ढंग से कहना सीख लें, फ़िर स्टेज पर चढा करें॥
गुस्ताखी माफ़ लेकिन मुझसे नही रहा गया। यह कार्यक्रम मैं टीवी पर देख रहा था। जिस समय संत सींचेवाल के नाम की घोषणा की गयी, लोग खुश दिख रहे थे, दुःख इस बात का था की सींचेवाल का दो बार नाम नही लिया गया। सत्ती जी मैं आपको बताना चाहता हूँ की संत बलबीर सिंह को लोग सींचेवाल के नाम से जानते हैं। लोग बलबीर सिंह जानते ही नही, लोगों को सिर्फ़ संत सींचेवाल ही पता है ... अगर और ज्यादा जानना है तो आप कपूरथला के कांजली किनारे से किसी से पूछ लेना ......

क्या खाक सच दिखा रहे हो? सब टीआरपी बढ़ने का खेल है भाई ..

सच का सामना की टीम को रजत शर्मा की आपकी अदालत में पेश कर सवाल - जवाब अच्छा था, लेकिन अदालत में लोगों द्वारा पूछे जा रहे सवालों का एक भी जवाब सही ढंग से ना तो सच का सामना टीम दे सकी और ना ही रजत शर्मा दर्शकों को संतुष्ट कर सके। सच का सामना के एंकर राजीव खंदेवल भी हंसने के अलावा ठीक जवाब नही दे सके । कुछ भी इससे सच का सामना को प्रोत्साहित किया जा रहा है और रजत शर्मा के इंडिया टीवी की टीआरपी भी बढ़ गई। क्या यह सब महज टीआरपी बढ़ाने का दूषित खेल नही है? सच का सामना में क्या हो रहा है, माना की सच बोलना चाहिए, लेकिन हर चीज का एक दायरा होता होता है, एक सब बंधन मुक्त हो जाए, तो भारत और दुसरे देशों में फरक क्या रह जाएगा।
पिछले दिनों मुझे थाईलैंड जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।वहां की फिजां को देख कर दंग रह गया। भारत की संस्कृत और रहन सहन में इमोशनल रिश्ता है, जो किसी अन्य देशों में नही मिल सकता है। महज टीआरपी बटोरने के लिए भारत की संस्क्रती को तहास नहस करना कहाँ तक जायज है, एस भी बहस होनी चाहिए।
सच दिखने का ढिंढोरा पीटने वाला मीडिया क्या कर रहा है। सभी को पता है। माफ़ करना मैं भी एक बड़े मीडिया ग्रुप से जुडा हूँ, मुझे ऐसी बातें नही करनी चाहिए, लेकिन ख़बरों की रोज हत्या देख कर मन बेचैन हो जाता है। बात टीआरपी की हो रही थी, रजत शर्मा और सच का सामना की टीम ने जिस तरह आपकी अदालत में उलूल-जुलूल जवाब दिया, उससे मैं बिल्कुल संतुष्ट नही हूँ।
सच लिखने वाली कलम कुंद करने के लिए कारपोरेट हॉउस काम कर रहा है। सच लिखना अब अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा हो गया है। सारा गेम बिजनेस का है। पैसा आ रहा है, सब खुश, नही तो मीटिंग का दौर। मैं यह नही कहता की सच लिखने वाले नही है, लेकिन वे मजबूर हैं, उनके हाथों को पॉलिसी बनाकर लालावों ने बाँध दिया है। सच क्या दिखावोगे, सच दिखाना है तो गावों में जाओ, मुंबई और दिल्ली के एयर कंडीसन स्टूडियो में सच दिखाना छोड़ दीजिये, माफ़ करना यह सच नही है, यह टीआरपी बढ़ने का खेल है, यही सच है।

‘कायदे आज़म पाकिस्तान जनाब मोहम्मद अली जिन्ना’

शाइस्ता इकरामुल्ला
सरकार की ओर से मुझे निमंत्रण मिला था कि मैं सन फ्रांसिस्को में होने वाले अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन में हिंदुस्तान की नुमाइंदगी करूं। लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टी के लीडर मुझ से कह रहे थे कि मुझे नहीं जाना चाहिए। उन का तर्क था हमारी पार्टी आल इंडिया मुस्लिम लीग-भारत के ब्रिटिश शासकों से असहयोग करने का फैसला कर चुकी है सो एक अनुशासित लीगी होने के नाते मैं सरकारी प्रतिनिधि मंडल में शामिल नहीं हो सकती थी। मेरी बड़ी तबीयत थी जाने की-इसीलिए मैंने कहा, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं चली जाऊं और राजनीति पर कुछ न बोलूं।’
‘तो फिर तुम किस विषय पर बात करोगी?’ मुहम्मद अली जिन्ना ने तलखी से पूछा, ‘चांद पर बैठे आदमी के बारे में।’ फिर उन के चेहरे पर नरमी उतर आई। ‘मैं जानता हूं, कि मेरी बात से तुम्हें कित्ती निराशा हुई है-लेकिन मामला सिद्धांत का है। मैं वादा करता हूं एक दिन तुम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अवश्य भाग लोगी। पूरी शान के साथ अपने देश की नुमाइंदगी करोगी।’
यह बात 1945 की है। लेकिन यह आह्लाद मुझे चमत्कृत कर गया। पाकिस्तान के संस्थापक और करोड़ों मुसलमानों के मान्य जश्‍न कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना अपनी कनिष्ठतम सहयोगियों में से एक को यह जश्‍न कीमती सब़कदेने की जहमत खुद उठा रहे थे कि प्रतिबद्धता के लिए किस अनुशासन और जश्‍न कुरबानी की जरूरत होती है।
जश्‍न कायदे आज़म हर किसी के सामने इतने खुलेपन से पेश नहीं आते थे। वह एक संकोची व्यक्ति थे, और अधिकांश गंभीर लोगों की तरह मुसकराते भी बहुत कम थे। उनकी असाधारण प्रतिभा और एकांतिक प्रवृत्तियों के कारण ज्यादातर लोग उनसे खौफ खाते थे। अनेक वरिष्ठ मुस्लिम लीगी पहले से वक्त लिए बिना उनसे मिलने की जुर्रत नहीं रखते थे। हां, अपने नौजवान समर्थकों के प्रति जश्‍न कायद का दया और धैर्य भाव जरूर उजागर हो ही जाता था। मैं हर टेढ़े और विवादास्पद मुद्दे पर उन की राय जानने में जुटी रहती थी। सो बिना कोई खबर किए भी मिलने पहुंच जाया करती थी। लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने मुझे कभी टाला हो।
एक बार जिन्ना साहेब ने सुना कि ऑल इंडिया मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन का सेक्रेटरी मुहम्मद नौमान उनकी बड़ी अच्छी नकल भी उतार लेता है, तो जश्‍न कायद ने उसे बुलवा भेजा। ‘जरा मुझे भी तो दिखाओ,’ जश्‍न कायद ने हुक्म फरमा दिया। नोमान कुछ शर्मिंदा सा उनकी नकल उतारने लगा। उसने खत्म किया तो जश्‍न कायद ने मुसकराते हुए कहा, ‘बहुत अच्छे।’ फिर उन्होंने उसे अपना अस्त्राखानी हैट और एक आंख पर लगाने वाला चश्मा भी दे दिया। ‘इन्हें रख लो,’ उन्होंने सलाह दी। ‘इन से तुम और भी असली लगोगे।’
मैं जब भी जश्‍न कायदे आज़म से मिलती तो मुझे अपने अंदर एक आश्वासन का भाव उभरता हुआ लगता, क्योंकि वह अपनी मान्यताओं की विश्वसनीयता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त होते थे। किसी भी तरह से उनसे कम निष्ठावान और कम प्रतिभाशाली व्यक्ति में ऐसा आत्मविश्वास छलावा लग सकता था, लेकिन जश्‍न कायद में यही चीज़ सामने वाले को आश्वस्त कर देती थी। हर एक को यह पक्का विश्वास था कि हमें मिले उनके नेतृत्व में मुसलमानों के सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकार सुरक्षित थे, जश्‍न कायद के इसी करिश्मे ने अनेक युवा मुसलमानों को राजनीति के क्षेत्र में खींच लिया था। मैं ही उनसे न मिली होती तो शायद एक वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी और एशोआराम की जिंदगी जीने की आदी मैं आजादी की लड़ाई में कभी शामिल न हुई होती।
पच्चीस दिसंबर 1876 को जन्मे मुहम्मद अली जिन्ना भाई (बाद में उन्होंने अपना नाम संक्षिप्त करके जिन्ना रख लिया था) कराची के एक संपन्न व्यापारी के सबसे बड़े बेटे थे। उनके अब्बा इस बात से बहुत परेशान रहते थे कि जिन्ना अकसर ही स्कूल नहीं जाते और घर रहकर अपने मन से और अपनी ही रफ्तार से पढ़ाई करते। अंततः पिता ने जिन्ना को लंदन की एक व्यापारी कंपनी में प्रशिक्षु के रूप में भर्ती करा दिया। जिन्ना की अम्मी उन्हें इसी शर्त पर विदेश भेजने को तैयार हुईं कि वह विलायत जाने से पहले निकाह कर लें। इस तरह 1892 में 16 वर्षीय मुहम्मद अली की शादी मां बाप की पसंद की लड़की से हो गई। बाद में उनकी बहन फातिमा जिन्ना ने लिखा भी, ‘शायद उनकी जिंदगी का यही एक अकेला अहम फैसला था जिसे लेने का इख्तियार उन्होंने अपने मां-बाप को दिया था।’लंदन पहुंचने के थोड़े अरसे बाद ही मुहम्मद अली जिन्ना व्यापार छोड़कर कानून की पढ़ाई में लग गए। वह बौद्धिक रूप से ऐसा चुनौतीपूर्ण व्यवसाय अपनाना चाहते थे जिसके माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर सकें। पिता को खबर लगी तो उन्होंने गुस्से में भरकर तुरंत वापस लौटने का आदेश दे दिया। लेकिन यह बेकार गया, क्योंकि पिता ने उन्हें पहले ही इतना पैसा दे दिया था कि वह तीन वर्ष तक आराम की जिंदगी जी सकें।
अपने लंदन प्रवास के दौरान जिन्ना हाउस ऑफ कामंस में होने वाली बहसों को सुनते और उदार राजनीतिज्ञों ने उनके मन पर गहरी छाप भी छोड़ी वहां उन्हें थिएटर से भी प्रेम हो गया। जीवन भर वह शेक्सपीयर के भक्त रहे। जश्‍न कायद भारतीयों की उस पीढ़ी से थे जो इंग्लैंड में शिक्षा दीक्षा के बाद जीवन के ब्रिटिश तौर तरीके पूरी तरह अपना लेती थी। बदन पर सेविल रो का शानदार सूट पहने, दाई आंख पर चश्मा लगाए वह किसी कुलीन अंग्रेज जैसे लगते थे। उनकी कई बातें यूरोपीय रंगत लिए थी। वह समय प्रबंधन पर बहुत ध्यान देते थे और व्यापारिक मामलों में बहुत सावधानी बरतते थे।इंग्लैंड में साढ़े तीन बरस बिताने के बाद जुलाई 1896 में जिन्ना जहाज से कराची के लिए चल दिए। घर पहुंचे तो स्थितियां गंभीर थीं। पत्नी और मां का इंतकाल हो चुका था। उनके पिता का व्यवसाय लगभग चौपट ही हो गया था। हालांकि कराची के दो कानूनी सलाहकार फर्मे उनकी सेवाएं लेने को उत्सुक थीं, पर इस युवा बैरिस्टर ने बंबई में अपना भाग्य आजमाने की सोची।
वकील के रूप में जम जाने के बाद जिन्ना ने राजनीति में सक्रिय रूचि लेनी आरंभ कर दी। यह एक विडंबना थी कि वह 1906 में हिंदुओं का ही प्रभुत्व रखने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के सदस्य बने और हिंदू-मुस्लिम एकता के उत्साही समर्थक थे। वह कहते भी थे कि दोनों समुदाय इकट्ठे हो जाएं तो गोरों पर हिंदुस्तान से चले जाने के लिए अधिक दबाव डाला जा सकता है। लेकिन कांग्रेस से कई बार प्रताडि़त होने के बाद वह धीरे-धीरे यह माने लगे कि हिंदू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा। सो वह एक नए राष्ट्र-पाकिस्तान-की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए, जिसे हिंदुस्तान के मुस्लिम बहुल वाले तत्कालीन प्रांतों को मिलाकर बनाया जाना था।दोनों समुदायों के बीच खाई बढ़ी तो जश्‍न कायदे आज़म कई बार मोहनदास कर्मचंद गांधी से भी टकराए। ऊपरी तौर पर दोनों में अनेक समानताएं थीं। दोनों की मातृभाषा गुजराती थी, दोनों ने लंदन में रहकर वकालत पढ़ी थी। लेकिन जश्‍न कायद का स्वभाव तर्क और कारण का समर्थक था जबकि गांधी जी, उनके शब्दों में, अपनी ‘अंतरात्मा की’ सुनने के आदी थे। एक बार कायद ने महात्मा पर अपने वचन से फिर जाने का आरोप लगाया तो गांधी जी ने उत्तर दिया कि उनके ‘अंतस के प्रकाश’ ने उन्हें अपना मत बदलने का निर्देश दिया था। ‘भाड़ में गया अंतस का परकाश वरकाश,’ जिन्ना इस पर गुस्से से विफर पड़े थे- ‘आखिर वह सीधे-सीधे अपनी गलती मान क्यों नहीं लेते।’
ये दोनों राजनीतिक रीति-नीति के मामले में भी परस्पर विरोधी विचारों के थे-जश्‍न कायद का मत था कि परिवर्तन क्रमिक और व्यवस्थित होना चाहिए। गांधी जी का हथियार था सिविल नाफरमानी। यों इसके बारे में जश्‍न कायद ने सही भविष्यवाणी भी की थी कि उसके कारण हिंसा और कटुता बढ़ेगी। कांग्रेस के 1920 के अधिवेशन में, जहां गांधी जी की नीतियों को प्रबल समर्थन मिला, जश्‍न कायद ने उनका सख्त विरोध किया था। ‘आपका रास्ता गलत रास्ता है,’ उन्होंने गांधी जी से कहा था। ‘संवैधानिक रास्ता ही सही रास्ता है।’
सरकार की निरंकुश नीतियों के विरुद्ध जश्‍न कायद नियमित रूप से विरोध प्रकट करते रहते थे। वह कहते थे कि निवारक नजरबंदी, राजनीतिक सेंसरशिप और शांतिपूर्ण जनसभाओं को भंग करना उन्हीं अधिकारों का उल्लंघन था जिनके लिए खुद अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में संघर्ष किया था। सरकार ने इनके राजनीतिक विरोधियों का दमन किया तब भी जिन्ना ने सरकार की भर्त्सना की।
हालांकि मुसलमानों के अधिकारों और स्वाधीनता का ही प्रतिनिधित्व करते थे जश्‍न कायद, लेकिन वह रूढि़वादी कभी नहीं रहे। कुछ लोगों ने इसी रूप में जब उनका अभिनंदन किया तो उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हारा धार्मिक नेता नहीं हूं।’ जश्‍न कायद ने अपनी बहन को लड़कियों को कैथोलिक बोर्डिंग स्कूल में भेजकर मुस्लिम पंरपरा की अवमानना की थी- उन दिनों प्रतिष्ठित मुसलमान अपनी लड़कियों को घर में ही शिक्षा दिलवाते थे। बाद में उन्होंने बहन को दंत चिकित्सा विज्ञान पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया था। उनके समर्थन के कारण ही अनेक मुस्लिम महिलाएं-मेरी जैसी तरह से राजनीतिक रूप से सक्रिय हो सकी थीं।
धार्मिक कट्टरवादी भले ही जश्‍न कायद को नापसंद करते हों, पर मुस्लिम जनता उन्हें बहुत प्यार करती थी। उन की जनसभाओं में हजारों लाखों गरीब, अनपढ़ लोग उमड़ पड़ते। ‘अल्ला-ओ-अकबर’ तथा ‘जश्‍न कायद आज़म जिंदाबाद’ के गगनभेदी नारे लगाते। जिन्ना उर्दू ठीक से नहीं बोल पाते थे, इसलिए प्रायः अंग्रेजी में ही भाषण दिया करते थे। उन का एक शब्द न समझे बिना भी विशाल भीड़ उनकी साफ और नपी तुली आवाज को पूरी तवज्जो से सुना करती थी।जन साधारण पर जश्‍न कायद का गहरा प्रभाव था और इससे उन्हें बड़ी शक्ति भी हासिल हो गई थी, लेकिन उन्होंने अपनी इस स्थिति का दुरुपयोग कभी नहीं किया। सन 1942 में लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में यह प्रस्ताव आया कि बरतानवी हुकूमत से बातचीत करने के लिए जश्‍न कायद मुस्लिम लीग के अकेले नुमाइंदे होंगे और मुस्लिम राष्ट्र के भविष्य को लेकर फैसला करने का पूरा अधिकार भी उन्हें दिया गया। इस प्रस्ताव के तुरंत बाद मुस्लिम लीग के एक तेज तर्रार नेता मौलाना हसरत मुहानी ने विरोध प्रकट करते हुए बुलंद आवाज में कहा, ‘जश्‍न कायद कोई तानाशाह नहीं है। उसे इतना अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’
इस पर जो बावेला मचा उसके बीच जश्‍न कायद अचानक माइक्रोफोन पर दिखाई दिए, वह सबसे शांत रहने की अपील कर रहे थे। ‘मौलाना को अपनी बात कहने का पूरा हक है,’ उन्होंने कहा। ‘मतदान के समय आप भी ऐसा कर सकते हैं।’ फिर क्या था, प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया, लेकिन वस्तुस्थिति यह रही कि जश्‍न कायद ने मुस्लिम लीग की कौंसिल की सहमति के बिना कभी कोई कदम नहीं उठाया।जश्‍न कायद के लिए ईमानदार विरोध तो एक अलग बात थी मगर जान बूझकर किए गए अपमान को वह कभी बरदाश्त नहीं करते थे। सन् 1918 में उनकी दूसरी शादी के तुरंत बाद जिन्ना तथा उनकी पत्नी रत्ती की बंबई के गवर्नर लार्ड विलिंगडन ने रात्रि भोज पर आमंत्रित किया। रत्ती जिन्ना ज्यादा ही खुले गले की पोशाक पहने थीं। भोज की मेज पर लेडी विलिंगडन ने विशेष रूप से श्रीमती जिन्ना के लिए यह कहते हुए शाल मंगवाया, ‘कहीं इन्हें ठंड न लग जाए।’ जश्‍न कायद तुरंत उठ खड़े हुए। बोले, ‘मिसेज जिन्ना को ठंड लगेगी तो वह खुद कहकर अपने लिए शाल मंगा लेंगी।’ फिर वह अपनी बेगम को तुरंत गवर्नर हाउस से बाहर ले गए और विलिंगडन दंपति जब तक गवर्नर हाउस में रहे, जिन्ना वहां दोबारा नहीं गए।
सन् 1929 में रत्ती की मृत्यु के बाद फातिमा जिन्ना अपने भाई की गृहस्थी संभालने लगीं और अगले दो दशकों के दौरान निर्णायक राजनीतिक संघर्षों में लगातार उनके साथ बनी रहीं। सन् 1936 में कायद को लीग का नेतृत्व संभालने के लिए न्यौता दिया गया। उन का लक्ष्य था, मुसलमानों को संगठित करना ताकि जब ब्रिटिश हुक्मरान अंततः सत्ता सौंपें तो वे बहुसंख्य हिंदुओं के कारण राजनीतिक दबाव में न आ जाएं। यह बहुत टेढ़ा काम था, क्योंकि उस समय मुसलमान गरीब होने के साथ-साथ असंगठित भी थे। एक बार किसी ने उनसे प्रश्न किया था कि रात को गांधी जी तो जल्दी सो जाते हैं, लेकिन आप इतनी देर तक क्यों जागते रहते हैं? कायद ने जवाब में कहा कि ‘मिस्टर गांधी सो सकते हैं, क्योंकि उन का देश जाग रहा है, मुझे इसलिए जागना पड़ता है कि मेरा मुल्क सोया हुआ है।’ सन् 1937 के प्रांतीय धारा सभा चुनावों में मुस्लिम लीग को चौथाई से भी कम सीटें मिलीं तो जश्‍न कायद ने बड़े पैमाने पर सदस्यता अभियान छेड़ दिया। तीन वर्षों में ही मुस्लिम लीग के सदस्यों की संख्या कुछेक हजार से बढ़कर लगभग दस लाख हो गई।
कायद से मैं पहली बार अक्टूबर 1940 में मिली थी। मेरे पिता जब ब्रिटिश सरकार के सलाहकार थे और उनको उम्मीद थी कि मुस्लिम लीग और सरकार के बीच किसी प्रकार की सहमति कराने में उन्हें सफलता मिल जाएगी। उन्होंने मुझसे कहा कि वह कायद से मिलने जा रहे हैं। सो मैं भी साथ चलूं। मैं कुछ हिचकिचाहट के साथ तैयार हुई क्योंकि मैंने सुन रखा था कि कायद उग्र स्वभाव के व्यक्ति हैं और मैं फटकारे जाने से डरती भी थी।लेकिन मेरा ख्याल एकदम ही गलत था। कायद और उनकी बहन फातिमा इतने मिलनासार निकले कि कायद से कोई भी सवाल करने में मुझे जरा हिचक नहीं हुई। वह नपे तुले शब्दों में मेरे सवालों के जवाब देते जा रहे थे तो मैं सम्मोहित सी सब सुन रही थी। इस मुलाकात ने मेरे मन पर इतना गहरा असर डाला कि कुछ दिन बाद फातिमा ने मुझसे मुस्लिम वीमेंस स्टूडेंट फेडरेशन की स्थापना में मदद करने को कहा तो मैंने तुरंत हामी भर दी।
लीग के कामों में जैसे-जैसे मेरी दिलचस्पी बढ़ी। कायद से मुझे और भी बहुत कुछ पता चला। चालीसादि के शुरू के दिनों में हिंदू मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था। उन्हीं दिनों ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने एक लेख में मुझ पर आरोप लगाया कि एक सरकारी अफसर की बीवी होने के बावजूद मैं राजनीति में भाग ले रही हूं। यह आरोप अनुचित था क्योंकि अनेक हिंदू अधिकारियों की पत्नियां कांग्रेस पार्टी के लिए काम कर रही थीं और उन पर कोई उंगली नहीं उठाई जा रही थी। रोष से भरी हुई मैं जश्‍न कायद से मिलने जा पहुंची। ‘अखबार तो हर रोज मेरे बारे में इससे भी खराब खराब बातें छापते हैं,’ उन्होंने सहज भाव से कहा। ‘ऐसी छोटी-छोटी बातों पर परेशान होना ठीक नहीं।’ बाद में भी जब-जब मेरी आलोचना हुई तो कायद ने उचित परामर्श देकर मुझे असहज होने से रोका।
सन् 1945-46 के चुनावों में लीग ने 85 प्रतिशत मुस्लिम प्रांतीय सीटों पर विजय पाई- यह इसका ज्वलंत प्रमाण था कि भारत में स्थित मुसलमानों का बहुमत पाकिस्तान की स्थापना चाहता था। यह एक महत्वपूर्ण जीत थी। लेकिन मुझे उन जाती दिक्कतों का कोई गुमान नहीं था जिनसे कायद जूझ रहे थे। चालीसादि के आरंभ से ही उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। जून 1946 में एक्स-रे से पता चला कि उन का तपेदिक काफी बढ़ चुका था। लेकिन इस निदान को एक गोपनीय रहस्य बनाए रखा गया, क्योंकि अगर कांग्रेसी नेताओं को यह पता चल जाता कि कायद मरने वाले हैं तो शायद ब्रिटेन के साथ अंतिम बातचीत के दौर को वे और टाल देते। जश्‍न कायद के बिना लीग शायद ब्रिटिश दबाव के आगे झुक जाती और पाकिस्तान कभी न बन पाता।
खेद है कि 14 अगस्त 1947 को नए राष्ट्र के उस महान जन्मदिन पर मैं कराची में नहीं रह सकी। मैं सितंबर के मध्य में पाकिस्तान पहुंची और जश्‍न कायद से मिली जो कि अब पाकिस्तान के गवर्नर जनरल थे। वह बहुत गहरे तनाव में थे। बंटवारे के कारण बड़े पैमाने पर खून खराब हुआ था और पाकिस्तान अपनी ध्वस्त अर्थ व्यवस्था के साथ-साथ भारत से आए लाखों मुस्लिम शरणार्र्थियों का बोझ भी ढो रहा था। जश्‍न कायद ने इस सारी स्थिति पर मुझसे मेरी राय पूछी। ‘मुझे दिल्ली की गलियां याद आती हैं,’ मैंने कहा। वह कुछ पल मौन रहकर बोले, ‘मैं तुम्हारी बात समझता हूं, लेकिन क्या तुम आत्मा को खोकर सिर्फ पत्थर और मकबरों से जुड़ने को तैयार होतीं?’
अगस्त 1948 में मुझे राष्ट्र संघ के पेरिस सम्मेलन के लिए जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का सदस्य चुना गया। मैं समझ गई कि जश्‍न कायद वह वादा पूरा कर रहे हैं जो उन्होंने मुझसे 1945 में किया था। राष्ट्र संघ में अपनी भूमिका के बारे में उन की राय जानने का मौका मुझे नहीं मिला। बारह दिसंबर को लंदन में मैंने खबर सुनी कि गए दिन कराची में उनका निधन हो गया। उनके आखिरी दो शब्द थे, ‘अल्लाह... पाकिस्तान।’ और वह इन्हीं के लिए जिए भी थे।कायद कहा करते थे उन्होंने एक भीड़ में से राष्ट्र का निर्माण किया है। हमारे अंदर जो कलह और विरोध है, उसे देखते हुए कभी-कभी मैं सोचती हूं कि हम फिर वही पुरानी भीड़ बन चुके हैं। निस्संदेह हमें जश्‍न कायद जैसा दूसरा लीडर नहीं मिल सकता। लेकिन आज हम कम से कम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं और हम उनकी मिसाल सामने रखकर एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण भी कर सकते हैं जो उनके खयालों के अनुरूप हो।
(शाइस्ता इकरामुल्ला 1947 से 1954 के बीच पाकिस्तानी संविधान सभा की सदस्य थीं और 1964 से 1967 में मोरक्को में अपने देश की राजदूत भी। शाइस्ता इकरामुल्ला ने यह लेख कायदे आज़म के बारे में अगस्त 1991 में लिखा था।)

रब्ब करे हर वक्त रहे मेरा यार हसदा ....

मेरी रूह विच्च मेरा यार वसदा,

मेरी आँख विच्च उसदा दीदार वसदा,

मैनू अपने दर्दा दी परवाह नहीं,

पर रब्ब करे हर वक्त रहे मेरा यार हसदा ....

ओह तैनू कदों दा भूल गया ......

तडके - तडके आँख खुली,
इक हंजू नैना च डुल गया ।
मैं रब्ब कोलों पुच्च्या की होया?
ओह कहंदा जैनु तू सारी रात याद कित्ता,
ओह तैनू कदों दा भूल गया ......

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है.
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है.
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो.
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम.
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.........

पैसा जिवें नचाई जांदा, दुनिया नच्ची जांदी ऐ....

एह दुनिया पुत्तर पैसे दी, आंखी गल्ल सच्ची जांदी ।
पैसा जिवें नचाई जांदा, दुनिया नच्ची जांदी ऐ ।
गुरपाल सिंह पल यह पंक्ति बिल्कुल फिट है ... उन लोगों के लिए जिनके लिए पैसा से बड़ा कुछ नही ही । इसे गुरपाल सिंह ने दूरदर्शन के जश्न सुनहरी कार्यक्रम में सुनाये । दूरदर्शन केन्द्र जालंधर में पूरण शाह कोटी, बरकत सिधु, कमल हीर, मनमोहन वारिस और हेमराज शर्मा और जतिंदर कौर ने लाइव शो में जलवे बिखेरे । पुराने कलाकारों ने जो शमां बाँधा उसे नही भुलाया जा सकता है ।

मैं मरना नही चाहता...

भाइयों,
मैं मरना नही चाहता ।
वो मुझे कत्ल कर देंगे तो मैं तुम्हारे दिलों में जिन्दा रहूँगा ।
मैं आरागोन की नज्मों में जिंदा रहूँगा...
उन मिसरों में जो आनेवाले खूबसूरत दिनों की बशारत देते हैं ।
मैं पिकासों के फन में जिंदा रहूँगा ...
राबसन के गीतों में जिंदा रहूँगा ।
और सबसे ज्यादा ...
और सबसे बेहद तरीके से ...
मैं रफीकों के कामयाब व कामरान कहकहों में जिंदा रहूँगा ।

इसे 'लखनऊ की पाँच रातें ' के 'गलीना 'से लिया गया है, जिसे 'अली सरदार जाफरी 'ने अपने मास्को यात्रा के दौरान लिखी । जाफरी जुलाई १९५५ में मास्को यात्रा पर थे, जहाँ एक दिल के रोगी शायर ने मरते हुए पलों में बुदबुदाये थे । गलीना उस शायर की डाक्टर थी, जो शायर को किसी तरह से बचाना चाह रही थीं ॥ एक मार्मिक रचना से लबरेज इस लेख में डाक्टर और मरीज के संबंधों को उकेरा गया है । जाफरी उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद से जुड़े बलरामपुर में पैदा हुए, जो अब अलग जनपद बन चुका है ।

उसका मेकअप हो रहा था धुआं ....

सोचा था उसका कत्ल कर देंगे ...

पर ख़ुद का ही कत्ल करवा बैठे ...

जब उसे सजा देने की बारी आई तो ...

... ख़ुद पर इल्जाम लगा बैठे ?

हम रुखसत हुए उनकी यादें लेकर ...

वे मस्त हुए मेरी कब्र पर आकर ...

ऊपर से आँखों में अश्क थे,

अन्दर से चमक, मेरे रुखसत होने की

मेरा दिल फिर भी तड़प रहा था ....

उसका दिल मार रहा था हिलोरे ...

कब्र की मिटटी मेरे दिल की आंसू से हो रही थी गीली ...

उसके बनावटी आंसू से, चेहरा नही ...

उसका मेकअप हो रहा था धुआं ....

बहुत उदास हैं ....तिनके

हम बहुत उदास हैं ....
सोचता हूँ उस तिनके का क्या होगा ....
जो हवा के झोंके से कभी तनता है, तो कभी गिरता है..
फ़िर भी पड़ा रहता है मौन...
ना रोता है, ना हँसता है ....
बस उस एक झोंके का इन्तजार करता है ...
जो उस को पहुंचाए कहीं और ......

पापी पेट का सवाल है ....

पापी पेट के लिए... नौकरी.....
आप के लिए जीने की चाहत...
नहीं तो हम इस फिजां में....
कहाँ मुर्दे से कम हैं.....
अलविदा कहने को दिल बहुत करता है....
लेकिन जिन्दा रहने के लिए हूक-पीर है
क्या करूँ ..... मुझे किसी का बेसब्री से इन्तजार है ...
उस पतझड़, उस बहार की, जो लौट कर नही आई .....

जय हो ...ऐसे तो रोज बेचीं जाती हैं रुबीना ?


स्लमडॉग मिलिनियर की मशहूर बाल कलाकार रुबीना अली को उसके बाप ने बेचने की कोशिश की है । लंदन की एक वेबसाइट ने ये खुलासा किया है। वेबसाइट ने एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए रुबीना के पिता को रंगे हाथों कैमरे में कैद किया है।
बेबसाइट का दावा है कि रुबीना के पिता रफीक ने 2 लाख पाउंड यानि करीब १ करोड़ 80 लाख रुपये की मांग की।
वेबसाइट के मुताबिक रफीक ने स्टिंग के दौरान ये बार बार कहा कि इसके लिए हॉलीवुड के डॉयरेक्टर जिम्मेदार हैं। इस क्लिप में ये दिखाया गया है कि किस तरह रुबीना के पिता के साथ उसके चाचा भी इस ड़ील में हिस्सा ले रहे हैं।
इस वेवसाइट न्यूज ऑफ द वर्ल्ड में ये दिखाया गया है कि किस तरह उनके रिपोर्टर दुबई के शेख बनकर रुबीना के पिता से मिले और रुबीना को गोद लेने की बात की।
इस घिनौनी करतूत के लिए रुबीना के पिता को क्या सजा मिलनी चाहिए?
सवाल यह होना चाहिए की आख़िर रुबीना को बेचने की नौबत क्यूँ आई ? क्या कभी किसी ने सोचा है की सवदी अरब के शेख हमारे देश की 'लक्ष्मी' को खाड़ी देश में ले जाकर क्या करते हैं ? एक गरीब बाप कर ही क्या कर सकता है ? घर में लड़की पैदा होने पर मातम क्यों छा जाता है ? अमीरों के घर में लड़की हुई तो ठीक है, लेकिन गरीब कहाँ से दहेज़ के लिए धन इकठा करेगा ? शेखों की गलती नहीं है, गलती है हमारे समाज की ? रुबीना ही नहीं देश के कोने-कोने से रुबीना जैसी लड़कियां चंद सिक्कों के लिए बेचीं जाती हैं ? उनका कसूर क्या है, क्योंकि वह लड़की है ? उडीसा, पश्चिम बंगाल. बिहार, उत्तर प्रदेश, नेपाल से रोज सैकडों बच्चियां बेचीं जा रही हैं ? कई बार स्टिंग ओपरेशन हुए, लेकिन क्या रिजल्ट निकला ? अभी हाल मे आमिर खान कैसे फिल्म गजनी में बच्चियों के सौदागर पर फोकस किया गया था, बिलकुल सटीक ? टीवी वाले स्टिंग आपरेशन की बात करते हैं , उत्तर प्रदेश और बिहार में आज भी कई पिछडे इलाके में बच्चियों के बेचने का काम जारी है ।विदेशों में बढ़िया काम दिलाने की लालच देकर उनका मानसिक, आत्मिक और शारीरिक शोषण किया जा रहा है . बात रुबीना को लेकर चली थी, ऐसे रुबीना को सरकार भी बिकने से नहीं बचा सकती है,
इसके लिए समाज में परिवर्तन कैसे जरुरत है . लोगों को सोच बदलने की जरुरत है ... दहेज़ से तौबा करने की जरुरत है ?
क्या ऐसा कर सकते हो ?

जय हो ....पत्रकार महोदय

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।

अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।

जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !
श्री वीरेन डंगवाल जी की कलम से ....

कश्मीर में भुखमरी है क्या ?

मैं रोज की तरह आज भी नगर निगम से लौट रहा था, की शास्त्री मार्किट में एक २४ साल का हट्टा - कट्टा कश्मीरी नौजवान मेरे सामने खड़ा हो गया । मैं एक अख़बार लेने पास की दुकान में जा रहा था । कश्मीरी नौजवान के कंधे पर कुल्हाडी थी, हाथ में एक झोला था । मेरे सामने आकर १० रुपए मांगने लगा । बोला, भूखा हूँ । चाय पिला दो । दो दिन से दिहाडी नही की है, मेरे पास एक भी रुपया नही है । मैं हैरान था, मेहनत करने वाले इस युवक पर जो मुझसे पैसे मांग रहा था । मेरे पास १०० रूपये का एक ही नोट था, मैं देना नही चाहता था । और यही हुआ, मैंने उसे आगे टरका दिया ।
अचानक मुझे एक फ़ोन का ख्याल आप गया । एक दिन एक महिला का मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया की शहर में झुंड के झुंड कश्मीरी लोग घूम रहे हैं, यह उस समय की बात है जब देश में एक के बाद एक बम धमाके हुए थे । महिला ने फ़ोन पर कहा था की ये लोग आतंकवादी हो सकते हैं । मुझसे इन लोगों के बारे में अख़बार में ख़बर लिखवाना चाह रही थी । मुझे यह बात कतई नही जांची । मेहनत मजदूरी करने वाले लोग ऐसा क्यूँ करेंगे ?
उसके बाद आज कश्मीरी युवक द्वारा १० रूपये मांगने की घटना ने मुझे एक चीज सोचने पर मजबूर कर दिया । वह यह की क्या कश्मीर में भुखमरी है ? मुझे कश्मीर जाने का कभी मौका नही मिला है , लेकिन इतना जरुर सुना है, पढ़ा है, कि अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर है । क्या स्वर्ग जैसे जगह का यह हल है ? इस पर जम्मू - कश्मीर कि सरकार के साथ केन्द्र सरकार को भी सोचना चाहिए । आंतक का संताप झेल रहे स्वर्ग को बचाने और कश्मीर के लोगों को रोजगार देने कि पहल करनी चाहिए । कश्मीर का नौजवान जब कुल्हाडी उठा कर लकड़ी कट सकता है , पेट और परिवार चलाने के लिए वह कुछ भी कर सकता है ।
सरकारें अगर कुछ करना चाह रही हैं रोजगार मुहैया करवाए, आतंकवाद अपने आप ख़तम हो जाएगा ।
महाबीर सेठ

जय हो खोरवा पुरवा, जय हो पिंकी


उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर का एक छोटा से गांव का पुरवा खोरवा गांव, जहां के लोगों को खेत खलिहान और काम से मतलब है । अचानक स्माइल पिंकी से मिर्जापुर के पिछ़ड़े गांव का नाम दुनिया के सबसे चकाचौंध नगरी अमरीका के लास एंजिल्स में चमक उठा । गांव के गरीब परिवार की पिंकी का नाम अब मिर्जापुर से होते हुए यूपी की राजधानी लखनऊ, दिल्ली के रास्ते लास एंजिल्स में गूंज रहा है । यह केवल मिर्जापुर के छोटे गांव की खुशी नहीं है,बल्कि यूपी और समूचे हिंदोस्तान के लिए बड़े ही गर्व की बात है । मिर्जापुर जैसे जिले के अत्यंत पिछड़े गांव में जहां रसूखदारों और कर्मकांड धर्मअधीकारी की हुकूमत हो, वहां पिंकी जैसी बच्चियों की क्या बिसात । यूपी का एक न्यूज चैनल जिस तरह की पिंकी की झोपड़ पट्टी जैसे घर का लाइव कास्ट कर रहा था, पिंकी का छोटा भाई जिस तरह कपड़े में उछलकूद रहा था, आप सहज ही गरीबी का आकलन कर सकते हैं । स्लमडाग मिलियनेयर के बाद लघु वृत्त चित्र 'स्माइल पिंकी' की नायिका पिंकी को आस्कर समारोह में हिस्सा लेने के लिए निर्देशक मेगन मायलन ने उनके माता-पिता के साथ न्योता भेजा है । स्माइल पिंकी को आस्कर में सर्वश्रेठ लघु वृत्त चित्र में नामित किया गया है । पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर और मां शिमला देवी के साथ पूरा खोरवा गांव खुश है । यह वही पिंकी है जब ९ साल पहले पैदा हुई थी, तब इस बच्ची के होंठ कटे-फटे थे । बच्ची ठीक से बोल-हंस नहीं पा रही थी । सामाजिक कार्यकर्ता ने आपरेशन करवाया, और पिंकी को मुस्कान दी । इसी मुस्कान पर मेगन मायलन ने लघु वृत्त चित्र बनाई, जो आस्कर में सर्वश्रेष्ठ नामित हुई ।

वाह रे पंचायत! सोचा, लड़की का क्या होगा?

मुजफ्फर नगर की पंचायत ने निम्न तबके वाली लड़की के हित में नहीं, बल्कि उच्च विरादरी के हक में फैसला सुनाया है । यह तो वही हुआ कि -- जबरा मारे, निबरा को रोने भी न दे । एसे में तो अमीरजादे कुछ भी करें, गरीब पैसा लेता रहे । यह कहां का कानून है ?
प्रेमी को देना पड़ेगा खर्चा , खबर यह नहीं बल्कि यह होनी चाहिए कि अब गरीब तबके की लड़की का क्या होगा ? भारतीए समाज में एसा कोई प्रावधान नहीं है,जिसमें गर्भवती लड़की को किसी और के खूंटे बांधा जाए । पंचायत का फैसला यह होना चाहिए कि गरीब लड़की के साथ अगर प्रेम किया गया है तो उसके प्रेमी के साथ विवाह होना चाहिए । यह कहां से उचित फैसला हुआ, कि गरीब को पैसा देकर मुंह बंद करवा दो । मैंने भी एक अखबार में इस खबर को देखा । एजैंसी के रिपोर्टर ने मसाला लगाकर खबरें प्रस्तुत की थीं, अखबार ने भी बढिया डिस्पले देकर पाठक तक पहुंचाया । लेकिन क्या सुबह इस खबर को पढ़ कर आपकी आत्मा ने कोई सवाल नहीं किया । अगर नहीं तो आप सो रहे हैं ?
बुरा मत मानना क्या गरीब लड़की की जगह आप में से किसी की लड़की होती, उच्च श्रेणी के लड़के की जगह आपके इलाके के किसी करोड़पति या फिर किसी बड़े नेता का लड़का होता, तब आप क्या करते । मान लो आपको कहा जाता कि १ करोड़ लेकर बेटी का गरभपात करवा लें, किसी के साथ ब्याह दें । क्या आप एसा करते ? जरा सोचिए ....
यह मुजफ्फर नगर की पंचायत का फाल्ट नहीं है, फाल्ट हमारे समाज का है । हमेशा से ही गरीबों को कुचला गया है, गरीब लड़कियों के चीरहरण किए गए हैं । वह चाहे मुंशी प्रेमचंद की कोई कहानी हो, अथवा कोई बड़े लेखक का जासूसी उपन्यास अथवा किसी बड़े डायरैक्टर की कोई फिल्म क्यों न हो ? आपने कहानी अमित जी के पोस्ट में पढ़ी होगी,कहानी मैं नहीं बताऊंगा । लेकिन इतना जरूर कहूंगा, कि सोचिए क्या यह ठीक है ।

डोडे खाओ, ड्यूटी करो

एक फिल्म देखी थी, पुलिस वाला गुंडा । आईपीएस अफसर के गिरफ्तारी के बाद जब मैंने कुछ लिखना चाहा तो, पुलिस वाला गुंडा फिल्म के दृश्य आंखों के सामने आ रहे थे । हालांकि फिल्म में पुलिस की गुंडई, बदमाशों को मारने के लिए दिखाई गई थी । लेकिन रील लाइफ और रीयल लाइफ में यही फरक है । रीयल लाइफ में पुलिस की गुंडई कहीं ज्यादा है । दुनिया के जितने के गलत काम होते हैं, पुलिस करती है, करवाती है । चाहे जुआघर हो, कैसीनो हो, वेश्याओं के कोठे हों, नशीले दवाइयों का व्यापार हो, किसी का कत्ल हो । ऐसा नहीं कि सभी पुलिस वाले गलत धंधे में लिप्त हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि गलत धंधे बिना पुलिस की रजामंदी से नहीं हो रहे हैं । मुंबई में पुलिस ने ही एक बड़े पुलिस अधिकारी को दबोच कर यह साबित किया है, कि समाज के हर तबके में चोर हैं । फिर चाहे पुलिस, नेता और आम लोगों को समाज क्यों न हो ? यहां तक कि चौथा स्तंभ भी इसमें शुमार हो गया है । किसे सही कहा जाए?मुंबई में भारी मात्रा में ड्रग्स के साथ आईपीएस अफसर शाजी मोहन 93 बैच का आईपीएस है। जम्मू कश्मीर कैडर के इस अधिकारी के पास से ११ किलो ड्रग्स बरामद किए गए हैं । मुंबई एटीएस ने गिरफ्तार किया है। इससे पहले ये अधिकारी चंडीगढ़ में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो में तैनात था। पंजाब और हरियाणा में तो नशीले पदाथॆ की खेप रोज पकड़ी जाती है । पंजाब से सबसे ज्यादा खेप राजस्थान से चल कर आती है । जिसमें सफेदपोश के साथ-साथ खाकीधारी भी शामिल हैं । राजस्थान और पंजाब राज्य पाकिस्तान से भी सटा है । आए दिन नशीले पदाथो की खेप पकड़ी जा रही है । हैरोइन, चरस, अफीम और पता नहीं क्या-क्या ? सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या पुलिस को यह नहीं पता । रात होते ही चौराहों, गलियों और सड़कों पर घूमने वाली पुलिस खुद नशे की तलाश में रहती है । पंजाब में तो यह आम है, डोडे खाओ, ड्यूटी करो । फिर चाहे सीएम की ड्यूटी में क्यों न लगे हों ।

राष्ट्रवादी रहमान













राष्ट्रवादी मिलियनेयर भारतीय फिल्म को बहुप्रतिष्ठत हालीवुड पुरुस्कार 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' भले ही सर्वश्रेष्ठ सक्रीन प्ले,निर्देशन तथा संगीत के संयुक्त आधार पर मिला हो लेकिन संगीतकार ए.आर.रहमान को मिले इस पुरुस्कार में भारतीयता की जीत है । संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के बावजूद जब देश में सबकुछ धर्म -जाति और क्षेत्र के आधार पर बांटा जा रहा हो, एसे में रहमान की इस उपलब्धि को राष्ट्र के नाम समर्पित करना कइयों के लिए सबक या प्रेरणास्रोत बन जाना चाहिए । गौर है कि उक्त फिल्म का गुलजार लिखित रहमान का संगीतबद्ध गीत 'जय हो' गाना सर्वश्रेष्ठ मौलिक संगीत रचना के खिताब से नवाजा गया है । निश्चित रूप से रहमान का रचा यह इतिहास उनके भारतीयता में डूब जाने या राष्ट्रयिता से ओत-प्रोत हो जाने का ही परिणाम है । इस दृष्टि से अल्लाह रखा रहमान 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' जीतने वाले पहले भारतीए हैं । संगीत की रचना के समय भी भारतीयता की कल्पना में खोए रहने वाले रहमान की रचनाएं उनके समर्पण को कई बार प्रकट कर चुकी है । संगीत के इस साधक में भारतीयता को समझने, भारतीयता में डूबने का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपने संगीत के लिए कभी छत्तीसगढ़ को जानना चाहते हैं तो कभी गुजरात के गांवों को । कभी वह कश्मीर की वादियों में गुनगुनाया है तो कभी त्रिपुरा की तराइयों में उसकी कल्पनी पहुंची । जय हो रहमान, जय हो हिंद ....

‘सुभाष की सेना’ पर लगे थे आरोप!


देश की आजादी के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास करने की मुहिम में आजाद हिंद फौज (आईएनए) के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस के योगदान को किसी भी कीमत पर कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन उनके फौजियों को मलाल है कि आजाद भारत की पहली सरकार भी उनके साथ न्याय न कर सकी और देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा की नजर में तो ये फौजी अनुशासनहीन भी थे।आईएनए की अग्रिम पंक्ति के नायक रहे और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना से विद्रोह करने के आरोप में कोर्ट मार्शल झेलने के बाद फांसी की सजा सुनाए गए कैप्टन अब्बास अली ने अपनी किताब में यह खुलासा किया है।आजादी के बाद देश में समाजवादी आंदोलन से जुड़ने वाले कैप्टन अब्बास ने अपनी आत्मकथा ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर’ में 1945 में पंडित नेहरू के नेतृत्व में बनी पहली अंतरिम सरकार द्वारा आईएनए के फौजियों के साथ किए गए बर्ताव का बेबाकी से वर्णन किया है।आजादी के बाद जनता पार्टी के सदस्य के रूप में उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य रहे कैप्टन अली लिखते हैं कि विश्वयुद्ध में आईएनए के सिपाहियों को ब्रिटिश सरकार से बगावत कर जापान का साथ देने के आरोप में कोर्ट मार्शल के दौरान फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद, 1946 में बनी अंतरिम सरकार ने अधिकांश सैनिकों की सजा को मुल्तवी कर दिया। लेकिन कुछ एक सिपाहियों को ब्रिटिश अधिकारियों ने फिर भी सजा-ए-मौत दे दी और भारत सरकार कुछ न कर सकी। इतना ही नहीं कोर्ट मार्शल की कार्रवाई के दौरान भी उन लोगों के साथ जेलों में बुरा बर्ताव किया गया।कैप्टन अली के मुताबिक, “देश की आजादी के लिए आईएनए में भर्ती हुए सैनिकों को उम्मीद थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन सभी को भारतीय सेना में शामिल कर देश की सेवा का मौका दिया जाएगा। लेकिन हाय री किस्मत, हमारी अपनी सरकार ने ही हमारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया और वह भी नाकाबिल बताकर”। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि आईएनए में एक लाख से ज्यादा सैनिक थे और इनमें से 60 हजार से अधिक पहले ब्रिटिश फौज का हिस्सा थे।आमतौर पर माना जाता है कि आईएनए के केवल तीन युद्धबंदियों- जनरल शाहनवाज खां, कैप्टन सहगल और कैप्टन ढिल्लों को ही कोर्ट मार्शल का दंश झेलना पड़ा, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे हजारों सिपाहियों के खिलाफ देश की विभिन्न जेलों में यह कारवाई हुई और वह भी उनमें से एक थे।कैप्टन अली ने बयां किया, “बड़े अफसोस के साथ मुझे लिखना पड़ रहा है कि हम बागियों को यह कहकर आजाद भारत की सेना में शुमार नहीं किया गया कि ये फौजी अनुशासित नहीं हैं। मुझे याद पड़ता है कि देश के पहले सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने बयान दिया था कि चूंकि आईएनए के सिपाही अनुशासित नहीं हैं, इसलिए उन्हें दोबारा सेना में शामिल नहीं किया जाएगा और हमारी सरकार ने उनकी यह बात मान ली”। कैप्टन अली के मुताबिक इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह रही कि आईएनए के जनरल शाहनवाज खां ने, जो आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हुए और केन्द्र में मंत्री भी बने, अपने ही साथियों के साथ किए गए इस अपमानजनक रवैये के बारे में कुछ नहीं किया। इसके लिए सिर्फ डॉ. राममनोहर लोहिया ही बार-बार आवाज उठाते रहे।उन्होंने लिखा कि आजादी के बाद आईएनए के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल करने या न करने का सवाल उठाना ही निरर्थक था।खैर, अगर यह सवाल उठाया भी गया तो फिर उन्हें बगावती बताकर सेना में शामिल करने से अयोग्य ठहराए जाते वक्त यह सवाल क्यों नहीं उठाया गया कि देश की आजादी के इन दीवानों ने आखिरकार बगावत किसके खिलाफ की थी। अपने देश के खिलाफ या फिर देश के दुश्मनों के खिलाफ।कैप्टन अली लिखते हैं कि एक सैनिक के लिए उसके फौजी होने से अयोग्य बताने से बड़ी पीड़ा और कुछ नहीं हो सकती और इस पीड़ा का अंत यहीं नहीं हुआ, बल्कि कांग्रेसी सरकार ने इन सिपाहियों और अफसरों को 1972 तक न तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना और न ही किसी तरह की पेंशन या कोई सुख सुविधा दी। विपक्षी दलों के संसद से सड़कों तक पर्याप्त शोरगुल और जद्दोजेहद के बाद 1972 में इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी माना और पेंशन दी। लेकिन इस समय तक तमाम सिपाही मर चुके थे और जो बचे थे उन्हें सरकार ने दस्तावेजी सबूतों के अभाव में आईएनए का सिपाही ही नहीं माना। कुल मिलाकर स्थिति ज्यों की त्यों रही । - वार्ता

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