30 सितबंर 2010। लखनऊ आज सुबह से ही सबके नजरों में था। लोग डरे नहीं थे। सहमे भी नहीं थे। लेकिन सड़कों पर अजीब सी बैचेनी थी। खामोशी थी। हैरानी थी। सुबह से दोपहर। वक्त का पहिया तेजी के साथ चल रहा था। इस बीच दोपहर बीतने लगी। 3 बज गए। सवा तीन और फिर साढ़े तीन। लोगों की निगाहें टीवी से चिपकी थी। हम लोग अदालत तक नहीं गए। एक च...क्कर जरूर काटा। डालीबाग से अलीगंज। वहां से लखनऊ विश्वविधालय। कैसरबाग बस अड्डे। बसें खड़ी थी। मुसाफिर तो थे, लेकिन बसें नहीं। सड़कें सुनसान होती चली गईं। हजरतगंज में भी लोग नहीं दिखे। लखनऊ सहमा हुआ था। खास कर पुराना लखनऊ। चौक और नक्खास, चौपटिया। मुस्लिम बाहुल्य वाले इलाके से अफवाहें आ रही थीं। कहीं लाठी चलाने तो कहीं बम मिलने की। अदालत में फैसले की घड़ी आई। सब सब्र से फैसला सुनना चाहते थे। 24 सितंबर तक जहां फैसला मुसलमानों की तरफ जाता बताया जाता रहा, वहीं 30 सितंबर को त्रिकोणीय हो गया। यानि सभी पक्षों को बराबर-बराबर जमीन मिल गई। रात 12 बजे तक सब ठीक रहा। इंशा अल्ला करें सब ठीक रहे। अब सोने जा रहा हूं। रात ठीक रही तो 1 अक्तूबर को मेरा जन्म दिन है। ठीक से मन जाएगा, नहीं तो शुक्रवार को भी शायद ही छुट्टी मिल पाए। शुभ रात्रि.....