इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर—ठिकाने आएँगे
हो गई है पीर —पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए
यहाँ दरख़्तों के
साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह
ज़िन्दगी ने जब छुआ कुछ फ़ासला रख कर छुआ
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
मैं भी तो अपनी बात लिखूँ अपने हाथ से
मेरे सफ़े पे छोड़ दे थोड़ा—सा हाशिया

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